रिक्शा बनाम भूमंडलीकरण
जनसत्ता, 23 जून 2015 में राजेंद्र रवि की अखिल भारतीय छात्रसंघ में शामिल होने से लेकर 'रिक्शे के साथ' खड़े होने तक की विचार यात्रा पढ़ कर कोई अचरज नहीं हुआ। एकाध अपवाद को छोड़ कर हर निम्नमध्यवर्गीय युवावस्था से प्रौढ़ावस्था तक इसी रास्ते से गुज़रता है, सारे समाज के लिए कुछ कर गुज़रने के क्रांतिकारी जोश से शुरू कर, हर क़दम पर अपनी सुख-सुविधा के अनुकूल, अपनी सहूलियत के हिसाब से समझौते करते हुए और व्यक्तिवादी सोच के साथ अपने हर क़दम को उचित ठहराते हुए, आत्मतुष्ट, अवसानकाल में दुविधाग्रस्त। निम्नमध्यवर्गीय की व्याख्या करते हुए मार्क्स ने लिखा था, “एक विकसित समाज में और अपनी परिस्थिति के कारण, निम्न मध्यवर्गीय एक ओर तो समाजवादी बन जाता है और दूसरी ओर एक अर्थवादी, अर्थात वह उच्च मध्यवर्ग के ऐश्वर्य से चुंधियाया होता है और विपन्नों की विपन्नता से द्रवित भी। वह एक ही समय पर पूंजीपति भी है और जनता का आदमी भी।”, पर साथ ही यह भी रेखांकित किया था कि, “निम्न पूंजीपति आने वाली सभी सामाजिक क्रांतियों का अभिन्न अंग होगा।”
बोल्शेविक पार्टी का गठन करने के दौर में संशोधनवाद के ख़िलाफ़ आगाह करते हुए लेनिन ने लिखा था, "जो हमारे आंदोलन की वास्तविक परिस्थिति से थोड़े भी परिचित हैं, मार्क्सवाद के व्यापक विस्तार के साथ सैद्धांतिक स्तर में गिरावट उनकी नजरों में आये बिना नहीं रह सकती है। काफी तादाद में लोग, सतही या पूरी तरह नदारद सैद्धांतिक प्रशिक्षण के साथ, आंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा सफलता के कारण, उसमें शामिल हो गये हैं। "1917 में रूस में बोल्शेविक कम्युनिस्टों के नेतृत्व में हुई क्रांति के बाद, कम्युनिस्ट शब्द सारे विश्व में शोषण के विरुद्ध लड़ाई का पर्याय बन चुका था। विडम्बना यह है कि 1920 में ताशकंद में चंद मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों ने मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम की समझ के बिना भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन कर लिया था और तब से भारत में वामपंथी आंदोलन संशोधनवाद के जिस दलदल में फंसा है उससे आज तक नहीं निकल पाया है। 1960-70 के दशक के अनेकों कट्टर नक्सलवादी साथियों को, शोषण से आजादी के लिए राजनैतिक क्रांति की जगह आज, व्यक्तिगत आजादी के लिए सामाजिक क्रांति की पैरोकारी करते देख कर मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता है। जिन्हें मार्क्सवाद की सही समझ नहीं है उनके लिए यह समझ पाना मुमकिन नहीं है कि मानव समाज, व्यक्तियों का केवल एक झुंड नहीं है, बल्कि अपने आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए, मानवों की वैचारिक रूप से संगठित एक जैविक संरचना है। उत्पादन-वितरण सहित सभी राजनैतिक तथा सामाजिक कार्य कलाप, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आर्थिक हितों की पूर्ति से ही प्रेरित होते हैं।
मार्क्सवाद एक चिंतन पद्धति है जो संपूर्ण प्रकृति को समझने के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रदान करता है। मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम को समझे बिना न तो, मूल्य, मुद्रा, पूँजी, अतिरिक्त मूल्य जैसी वैचारिक कोटियों को समझा जा सकता है, और न ही शोषण और उसके खात्मे की प्रक्रिया को समझा जा सकता है। अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन करना और उसके जरिए जीवन को सुगम बनाना मानव प्रजाति का प्राकृतिक गुण है और उत्पादक शक्तियों के विकास के जरिए उत्पादकता बढ़ाना इसी का एक आयाम है। जहां अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन केवल मानव श्रम द्वारा वस्तुओं को उपभोग के लिए रूपांतरित करने के दौरान ही किया जा सकता है वहीं, अतिरिक्त मूल्य का हस्तांतरण उत्पादन-उपभोग का चक्र पूरा होने के बाद ही संभव है।
मार्क्स ने रेखांकित किया था कि औद्योगिक क्रांति के बाद उत्पादन-वितरण का स्वरूप वैश्विक हो गया है जिसने दुनिया के मजदूरों को एक कर दिया है, पूंजी को अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय स्तर प्रदान कर मुद्रा को उत्पाद में बदल दिया है, पूंजीवाद अपनी उच्चतम औपनिवेशिक अवस्था में पहुंच चुका है, और मुक्त व्यापार का समर्थन एक अग्रगामी कदम है जो शोषणमुक्त मानव-समाज के लिए आधार प्रदान करेगा। मार्क्स के इसी सैद्धांतिक विश्लेषण का अनुकरण कर लेनिन यह दर्शा पाये थे कि अविकसित पूंजीवादी व्यवस्था में भी मजदूर वर्ग संसदीय जनवाद की बागडोर अपने हाथ में ले सकता है। और इसी समझ के आधार पर माओ ने नये जनवाद की अवधारणा विकसित की जिसका अनुकरण कर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी चीन के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथ में रखने में सफल हुई। इसके विपरीत भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अपनी गैर मार्क्सवादी समझ के कारण न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाने में असफल रही, बल्कि आज नब्बे साल बाद भी भारतीय राजनीति में दोयम दर्जे की भूमिका के लिए भी मोहताज है।
अपनी विचारधारा की विकास यात्रा के अंतिम पड़ाव में राजेंद्र जी ' रिक्शे के साथ ' खड़े हो गये हैं, बिना यह समझे कि व्यक्तिगत श्रम द्वारा रिक्शा चलाने वाला, पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया में लगे सर्वहारा की तुलना में कहीं अधिक भीषण शोषण का दंश झेलने के लिए अभिशप्त है।
सुरेश श्रीवास्तव
नोएडा
27 जून, 2015