Saturday, 27 June 2015

रिक्शा बनाम भूमंडलीकरण

रिक्शा बनाम भूमंडलीकरण

               जनसत्ता, 23 जून 2015 में राजेंद्र रवि की अखिल भारतीय छात्रसंघ में शामिल होने से लेकर 'रिक्शे के साथखड़े होने तक की विचार यात्रा पढ़ कर कोई अचरज नहीं हुआ। एकाध अपवाद को छोड़ कर हर निम्नमध्यवर्गीय युवावस्था से प्रौढ़ावस्था तक इसी रास्ते से गुज़रता हैसारे समाज के लिए कुछ कर गुज़रने के क्रांतिकारी जोश से शुरू करहर क़दम पर अपनी सुख-सुविधा के अनुकूलअपनी सहूलियत के हिसाब से समझौते करते हुए और व्यक्तिवादी सोच के साथ अपने हर क़दम को उचित ठहराते हुएआत्मतुष्टअवसानकाल में दुविधाग्रस्त। निम्नमध्यवर्गीय की व्याख्या करते हुए मार्क्स ने लिखा था, “एक विकसित समाज में और अपनी परिस्थिति के कारणनिम्न मध्यवर्गीय एक ओर तो समाजवादी बन जाता है और दूसरी ओर एक अर्थवादीअर्थात वह उच्च मध्यवर्ग के ऐश्वर्य से चुंधियाया होता है और विपन्नों की विपन्नता से द्रवित भी। वह एक ही समय पर पूंजीपति भी है और जनता का आदमी भी।”, पर साथ ही यह भी रेखांकित किया था कि, निम्न पूंजीपति आने वाली सभी सामाजिक क्रांतियों का अभिन्न अंग होगा।
               बोल्शेविक पार्टी का गठन करने के दौर में संशोधनवाद के ख़िलाफ़ आगाह करते हुए लेनिन ने लिखा था, "जो हमारे आंदोलन की वास्तविक परिस्थिति से थोड़े भी परिचित हैंमार्क्सवाद के व्यापक विस्तार के साथ सैद्धांतिक स्तर में गिरावट उनकी नजरों में आये बिना नहीं रह सकती है। काफी तादाद में लोगसतही या पूरी तरह नदारद सैद्धांतिक प्रशिक्षण के साथआंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा सफलता के कारणउसमें शामिल हो गये हैं। "1917 में रूस में बोल्शेविक कम्युनिस्टों के नेतृत्व में हुई क्रांति के बादकम्युनिस्ट शब्द सारे विश्व में शोषण के विरुद्ध लड़ाई का पर्याय बन चुका था। विडम्बना यह है कि 1920 में ताशकंद में चंद मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों ने मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम की समझ के बिना भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन कर लिया था और तब से भारत में वामपंथी आंदोलन संशोधनवाद के जिस दलदल में फंसा है उससे आज तक नहीं निकल पाया है। 1960-70 के दशक के अनेकों कट्टर नक्सलवादी साथियों को, शोषण से आजादी के लिए राजनैतिक क्रांति की जगह आज, व्यक्तिगत आजादी के लिए सामाजिक क्रांति की पैरोकारी करते देख कर मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता है। जिन्हें मार्क्सवाद की सही समझ नहीं है उनके लिए यह समझ पाना मुमकिन नहीं है कि मानव समाज, व्यक्तियों का केवल एक झुंड नहीं है, बल्कि अपने आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए, मानवों की वैचारिक रूप से संगठित एक जैविक संरचना है। उत्पादन-वितरण सहित सभी राजनैतिक तथा सामाजिक कार्य कलाप, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आर्थिक हितों की पूर्ति से ही प्रेरित होते हैं।          
               मार्क्सवाद एक चिंतन पद्धति है जो संपूर्ण प्रकृति को समझने के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रदान करता है। मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम को समझे बिना न तोमूल्यमुद्रापूँजीअतिरिक्त मूल्य जैसी वैचारिक कोटियों को समझा जा सकता हैऔर न ही शोषण और उसके खात्मे की प्रक्रिया को समझा जा सकता है। अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन करना और उसके जरिए जीवन को सुगम बनाना मानव प्रजाति का प्राकृतिक गुण है और उत्पादक शक्तियों के विकास के जरिए उत्पादकता बढ़ाना इसी का एक आयाम है। जहां अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन केवल मानव श्रम द्वारा वस्तुओं को उपभोग के लिए रूपांतरित करने के दौरान ही किया जा सकता है वहीं, अतिरिक्त मूल्य का हस्तांतरण उत्पादन-उपभोग का चक्र पूरा होने के बाद ही संभव है।
               मार्क्स ने रेखांकित किया था कि औद्योगिक क्रांति के बाद उत्पादन-वितरण का स्वरूप वैश्विक हो गया है जिसने दुनिया के मजदूरों को एक कर दिया है, पूंजी को अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय स्तर प्रदान कर मुद्रा को उत्पाद में बदल दिया है, पूंजीवाद अपनी उच्चतम औपनिवेशिक अवस्था में पहुंच चुका है, और मुक्त व्यापार का समर्थन एक अग्रगामी कदम है जो शोषणमुक्त मानव-समाज के लिए आधार प्रदान करेगा। मार्क्स के इसी सैद्धांतिक विश्लेषण का अनुकरण कर लेनिन यह दर्शा पाये थे कि अविकसित पूंजीवादी व्यवस्था में भी मजदूर वर्ग संसदीय जनवाद की बागडोर अपने हाथ में ले सकता है। और इसी समझ के आधार पर माओ ने नये जनवाद की अवधारणा विकसित की जिसका अनुकरण कर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी चीन के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथ में रखने में सफल हुई। इसके विपरीत भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अपनी गैर मार्क्सवादी समझ के कारण न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाने में असफल रही, बल्कि आज नब्बे साल बाद भी भारतीय राजनीति में दोयम दर्जे की भूमिका के लिए भी मोहताज है।  
               अपनी विचारधारा की विकास यात्रा के अंतिम पड़ाव में राजेंद्र जी रिक्शे के साथ खड़े हो गये हैं, बिना यह समझे कि व्यक्तिगत श्रम द्वारा रिक्शा चलाने वाला, पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया में लगे सर्वहारा की तुलना में कहीं अधिक भीषण शोषण का दंश झेलने के लिए अभिशप्त है। 
    
सुरेश श्रीवास्तव 
नोएडा
27 जून, 2015

Monday, 22 June 2015

भागो की मौत का जिम्मेदार कौन?

भागो की मौत का जिम्मेदार कौन?
जनसत्ता, 17 जून 2015 में, 'हक़ के लिए' आलेख में भागो के ज़रिए निवेदिता ने रेखांकित किया है कि भागो जैसी हज़ारों दलित  महिलाएँ लोगों के हक़ के लिए लड़ते हुए जान दे देती हैं पर दलित महिला होने के नाते उनकी मौत ख़बर नहीं बनती है। वे भूल जाती हैं कि दूसरों के हक की लड़ाई लड़ने वाले/वालियां अपने आप को खाँचों में नहीं बाँटते/बाँटती हैं, जिनकी रुचि केवल ख़बरों में होती है, वे ही लड़ाकुओं को स्त्री या पुरुष, दलित या सवर्ण, अगड़ा या पिछड़ा, हिंदीभाषी या अहिन्दीभाषी, हिंदू या मुसलमान जैसे खाँचों में बाँट कर, वंचितों की हक़ की लड़ाई के लिए आवश्यक एकजुटता को कमज़ोर करते हैं। और अगर कुछएक, चाहे वह भगत सिंह हो या निर्भया हो, का बलिदान ख़बर बन भी जाता है तो भी वह उद्देश्य, जिसके लिए बलिदान दिया गया, क्या कहीं भी पूरा होता नजर आता है। इतिहास कहता है कि इसका उत्तर तो 'नहीं' के अलावा कुछ और नहीं हो सकता है। नब्बे साल पहले के भगतसिंह हों या आज के दौर के नक्सलवादी या माओवादी हों, उन बेशक़ीमती जवानियों की असफल शहादत और असमय मौत का ज़िम्मेदार कौन है? क्या राजसत्ता के कारकुन जल्लाद या सिपाही, या सामंतों की रनबीर सेना के हथियारबंद दस्ते? या फिर अस्तित्व के लिए संघर्षरत शोषित वर्ग के स्वघोषित पैरोकार बुद्धिजीवी, जो शोषितों को शोषकों विरुद्ध उकसाने का काम बख़ूबी अंजाम देते हैं, पर जो स्वयं न तो शोषण की क्लिष्ट प्रक्रिया को समझते हैं और न ही उसमें सार्थक हस्तक्षेप कर सकने की क्षमता विकसित कर सकने का रास्ता जानते हैं।
बुद्धिजीवियों का एक वर्ग है जो समाजवाद की दुहाई तो देता है पर मार्क्सवाद को सिद्धांत के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। यह वर्ग अभिव्यक्ति की व्यक्तिगत आज़ादी को अनुल्लंघनीय नियम के रूप में स्वीकार करता है और अस्मिता की राजनीति को क्रांतिकारी संघर्ष मानता है, इसलिए उसके पास न कोई सिद्धांत हो सकता है और न ही वह संगठित संघर्ष के महत्व को समझ सकता है। पर जो मार्क्सवादी होने का दम भरते हैं और कम्युनिस्ट पार्टी के नाम पर एकजुटता का दावा करते हैं, वे भी मार्क्सवाद को एक सिद्धांत के रूप में न देखकर एक विचारधारा के रूप में देखते हैं जिसको निरंतर विकसित किये जाने की आवश्यकता है, और विचारधारा को विकसित करने के नाम पर, वैज्ञानिक समाजवाद को नकार कर, काल्पनिक समाजवाद को अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार परिभाषित कर, फ़िलवक्त के लिए प्रासंगिक विकसित समाजवाद के रूप में पेश करते रहते हैं।
इस प्रचलित धारणा, कि कम्युनिस्ट पार्टी ग़रीबों की पार्टी होती है, का अनुकरण कर भागो भी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गयी, बिना यह जाने-समझे कि बिना क्रांतिकारी सिद्धांत के कोई भी क्रांतिकारी पार्टी नहीं हो सकती है। लेनिन ने आगाह किया था कि ' जो कोई भी संसदवाद तथा बुर्जुआ प्रजातंत्र के अनिवार्य आंतरिक अंतर्विरोधों, जिनके चलते मतभेदों के समाधान पहले के मुक़ाबले कहीं अधिक व्यापक हिंसा के कारण और अधिक उग्र होते हैं, को नहीं समझता है, वह व्यापक मजदूरवर्ग को ऐसे फ़ैसलों में विजयी अभियान के लिए तैयार करने के मक़सद से संसदवाद के आधार पर कभी भी उसूल सम्मत प्रचार तथा आंदोलन नहीं चला सकता है।' और पिछले नब्बे साल के इतिहास में हर निर्णायक अवसर पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा लिए गये ग़लत फ़ैसले और व्यापक मजदूरवर्ग को विजयी अभियान के लिए तैयार करने में उनकी असफलता, इस बात की तसदीक़ करते हैं कि भारतीय कम्युनिस्टों के बीच उस सिद्धांत की समझ नदारद है, जिस सिद्धांत के बारे में मार्क्स ने कहा था कि 'सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने पर भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है और जनता के मन में घर वह तब करता है जब वह पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब करता है।'
मौजूदा विखंडित कम्युनिस्ट पार्टियों के रूप में संशोधनवाद अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है और उनके अवसान में निहित है भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का प्रस्थान बिंदु।

सुरेश श्रीवास्तव
9810128813
suresh_stva@hotmail.com
22 जून 2015
    

Sunday, 31 May 2015

विमर्श - द्वंद्वात्मक भौतिकवाद


From: Suresh Srivastava <suresh_stva@hotmail.com>
Date: 26 May 2015 21:50:14 IST
To: savita khan <savita.khan@gmail.com>
Subject: Re: निजता का वैध-अवैध

आपने मुझे कुछ कहने के लिए कहा है इसके लिए आभारी हूँ। इतने विस्तृत और गूढ़ विषय पर कुछ कहना छोटा मुँह बड़ी बात होगी, पर आपने कहने के लिए प्रेरित किया है तो अपनी बात अवश्य रखूँगा।
मार्क्स के आइने में देखने का प्रश्न ही नहीं हो सकता है। देखना तो अपने आइने में ही होता है, हाँ दो आइने एक जैसे हो सकते हैं, जैसा कि एंगेल्स ने, मार्क्स की मृत्यु के बाद पूछे गये प्रश्न, ' आप मार्क्सवादी किसे कहेंगे ' के उत्तर में कहा था, ' मार्क्सवादी वह नहीं है जो मार्क्स को उद्धृत कर सके, मार्क्सवादी वह है जो किसी भी परिस्थिति में उसी तरह सोचे जिस तरह उस परिस्थिति में मार्क्स ने सोचा होता।'  और मार्क्स के सोचने का तरीक़ा क्या था इसको समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि, मार्क्स अपने द्वारा प्रतिपादित किये गये सिद्धांत को मार्क्सवाद नाम दिये जाने का तीस साल तक विरोध करते रहे थे। उनका कहना था कि जो कुछ मैंने लिखा है वह तो सर्वहारा-वर्गचेतना पर आधारित समाज का ज्ञान है। पर अंत में 1872 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की हेग कांग्रेस की पूर्व संध्या पर अपने साथियों के आग्रह पर, अपने सिद्धांत तथा संशोधनवादियों द्वारा फैलाये जा रहे भ्रामक प्रचार के बीच भेद करने के लिए, उन्होंने मार्क्सवाद नाम को स्वीकार किया था।
चीज़ों को देखने-समझने की द्वंद्वात्मक पद्धति को, या उनकी भौतिकवादी व्याख्या को, भारतीय या पाश्चात्य जैसे विशेषणों के साथ समझने का प्रयास पूर्वाग्रह दर्शाता है जिसके कारण चीज़ों को सही-सही देखने-समझने की दृष्टि विकृत होती है।
वैचारिक स्तर पर, तर्कबुद्धि तथा विमर्श के द्वारा चीजों को समझने की पद्धति का नाम, डायलेक्टिक, यूनानी भाषा से आता है इसका अर्थ यह नहीं है कि और दुनिया भर के चिंतक-विचारक इस पद्धति से अनभिज्ञ थे। यथार्थ में मनुष्य हमेशा से, इंद्रियों के सीधे संज्ञान के दायरे के बाहर की चीजों को सफलतापूर्वक समझने के लिए इसी पद्धति का इस्तेमाल करता रहा है। और यही मानवीय चेतना का विशिष्ट गुण है, जो उसे और जीवों से गुणात्मक रूप से भिन्न बनाता है और समाज के गठन की क्षमता प्रदान करता है।
उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ ही श्रम का विभाजन भी बौद्धिक कर्म तथा शारीरिक कर्म के बीच हो जाने के कारण, मनुष्य के भौतिक जीवन के उत्पादन का श्रेय भी श्रमशक्ति की जगह तर्कशक्ति के नाम कर दिया गया। वैचारिक जगत तथा भौतिक जगत की पड़ताल का क्षेत्र भी दार्शनिकों तथा प्रकृति वैज्ञानिकों के बीच बंट गया। भौतिक जीवन के उत्पादन का श्रेय वैचारिक आयाम के नाम हो जाने के कारण भौतिक जगत का निर्माता भी किसी चेतन सत्ता में ढूँढा जाने लगा जिसने भाववादी दृष्टिकोण को जन्म दिया। भौतिक जीवन के निर्माण में प्रकृति विज्ञान की सफलता ने भौतिकवादी दृष्टिकोण को भी मान्यता दी। शुरू में दोनों दृष्टिकोण एक दूसरे में गुँथे हुए थे पर जैसे-जैसे उत्पादन के क्षेत्र में बौद्धिक कामगार तथा शारीरिक कामगार के बीच विभाजन रेखा तीक्ष्ण होती गयी, वैसे-वैसे भाववादी दृष्टिकोण तथा भौतिकवादी दृष्टिकोण के बीच विभाजन रेखा तीक्ष्ण होती गयी। पूँजीवाद के अपनी उच्चतम अवस्था, साम्राज्यवाद में पहुँचने के साथ हेगेल और कांत के प्रतिनिधित्व में भाववादी दृष्टिकोण तथा भौतिकवादी दृष्टिकोण भी अपने अंतिम चरण में पहुँच गये थे। हेगेल के लिए भौतिक जगत मानवीय चेतना के ज़रिए वैचारिक जगत का प्रकटीकरण था तो कांत के लिए वैचारिक जगत मानव मस्तिष्क पर भौतिक जगत का प्रतिबिंब था।
दोनों ही धाराओं के बीच के अंतर्विरोध के समाधान के बिना आगे विकास का रास्ता अवरुद्ध था। पर चेतना के सर्वव्यापी अस्तित्व होने की मान्यता के पूर्वाग्रह के चलते, अपनी मध्यवर्गीय मानसिकता के कारण, दोनों ही धाराओं के चिंतकों के लिए समाधान ढूँढना असंभव था। ऐसे में मार्क्स द्वारा यह पहचानना कि मानवीय चेतना तथा वैचारिक जगत का अस्तित्व सर्वव्यापी न होकर मानव मस्तिष्क की संरचना के भीतर ही सीमित है, मनुष्य का अपने परिवेश के साथ व्यवहार इंद्रियों के ज़रिए मनुष्य की व्यक्तिगत चेतना को प्रभावित करता है तथा व्यक्ति की चेतना व्यक्ति के अंगों के ज़रिए उसके परिवेश को प्रभावित करती है और सामाजिक चेतना या सामूहिक चेतना, व्यक्तिगत चेतना से स्वतंत्र रूप में व्यवहार करती है, ज्ञान के इतिहास में एक मील का पत्थर है, और मानव द्वारा प्रकृति के रहस्यों की पड़ताल-पद्धति में गुणात्मक परिवर्तन भी। अपने-अपने पूर्वाग्रहों के चलते, जगत की पड़ताल की पद्धति तथा व्याख्या में, विभाजन रेखा के भौतिकवादी पाले के वैज्ञानिक अपनी तत्त्ववादी पद्धति छोड़कर द्वंद्वात्मत्क पद्धति अपनाने में असमर्थ थे तो भाववादी खेमे के दार्शनिक अपनी व्याख्या में भौतिकवादी दृष्टिकोण अपनाने में असमर्थ थे। मार्क्स ने पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब कर वैचारिक जगत की पड़ताल विज्ञान के दायरे में लाकर, दर्शन तथा विज्ञान के बीच के अंतर्विरोध का समाधान कर दिया है और यही उन्हें महानतम दार्शनिकों तथा समाज-वैज्ञानिकों की श्रेणी में स्थापित कर देता है।
प्रकृति का मूल आधार है सूक्ष्मतम कणों के रूप में पदार्थ का निरंतर गति में रहना। विकास के निचले स्तर पर किसी संरचना में अवयवों की संख्या कम होने के कारण संरचना सरल होती है पर अवयवों की संख्या बढ़ने के साथ संरचना जटिल होती जाती है और उसका अपने परिवेश के साथ व्यवहार भी जटिल होता जाता है। किसी चीज़ या संरचना को सही-सही समझने के लिए उसकी अंतर्रचना तथा अधिरचना की पहचान ज़रूरी है। चीज़ की अंतर्रचना में, प्रमुख तत्त्व, दो परस्पर विरोधी अवयवों के रूप में निरंतर संघर्षरत रहते हैं। संघर्ष की तीव्रता घटती-बढ़ती रह सकती है पर जब तक विरोधियों का मौलिक स्वरूप नहीं बदलता है, संरचना की प्रकृति वही रहती है। चीज़ की अधिरचना, चीज़ के अपने परिवेश के साथ व्यवहार की प्रकृति को तय करती है। अधिरचना के माध्यम से अंतर्व्यवहार के ज़रिए, अंतर्रचना और परिवेश एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं, तथा अंतर्रचना में विरोधियों के बीच संघर्ष की तीव्रता बढ़ती जाती है और एक समय ऐसा आता जब एक विरोधी दूसरे विरोधी पर विजय पा लेता है जिसके साथ संरचना की प्रकृति में गुणात्मक बदलाव आ जाता है। विजित विरोधी एक नये स्वरूप में विरोधी के रूप में प्रकट होकर विजेता के साथ संघर्षरत हो जाता। बदलाव की यह प्रक्रिया प्रकृति के हर आयाम में और विकास के हर स्तर पर कार्यरत है। विकास की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया का सार निम्न रूप में व्यक्त किया जा सकता है -
1. विरोधियों का सहअस्तित्व - संघर्षरत विरोधी तत्त्वों का, अंतर्रचना में सहअस्तित्त्व संरचना की प्रकृति तय करता है।
2. मात्रात्मक परिवर्तन से गुणात्मक परिवर्तन - अधिरचना के माध्यम से संरचना अपने परिवेश के साथ व्यवहार करती है और दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं जिसके कारण संरचना के अंदर संघर्षरत विरोधियों के बीच संघर्ष की तीव्रता घटती बढ़ती रहती जिसके फलस्वरूप संरचना की प्रकृति में मात्रात्मक परिवर्तन होता रहताहै। एक स्तर पर अग्रगामी प्रतिगामी पर विजय पा लेता है जिसके कारण संरचना की प्रकृति में गुणात्मक बदलाव होता है।
3. अग्रगामी का प्रतिगमन - गुणात्मक परिवर्तन के बाद अग्रगामी, प्रतिगामी की भूमिका अपना लेता है, और प्रतिगामी समाप्त होकर अपने नये स्वरूप में अग्रगामी भूमिका अपना लेता है।
विकास की यह प्रक्रिया प्रकृति के हर आयाम में, पूरी तरह लागू होती है, भौतिक जगत में भी और वैचारिक जगत में भी, व्यक्तिगत जीवन में भी और सामूहिक जीवन में भी।
        मेरी अपनी द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की समझ यही है। साधारणतया किसी के लिए भी अपनी कमियाँ देख पाना संभव नहीं होता है, उन्हें तो दूसरे ही इंगित कर सकते हैं। अगर आप मेरी समझ की कमियाँ तथा त्रुटियाँ रेखांकित कर सकें तो आपका आभारी होउंगा।

सधन्यवाद
सुरेश श्रीवास्तव
9810128813
26 मई, 2015

Suresh Srivastava
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On 25-May-2015, at 00:47, savita khan <savita.khan@gmail.com> wrote:

धन्यवाद आपका कि आपने ऐसा प्रश्न पुछा जो मुझे दिन भर कइ परतों में बाँध कर रख सका। आप अगर यह स्पष्ट कर सकें कि क्या आप DM को सिर्फ़ मार्क्स के आइने में देखते हैं तो थोड़ी मदद मिलेगी। क्यूँकि dialectics और भौतिकवाद कइ अलग-अलग समय कालों में मार्क्स से पहले भी रहा, भारत में भी। भारतीय धर्म दर्शन भी several layers of contradictions की ख़ुब चर्चा करते हैं हिंदु भी, बौद्ध भी। शायद आपका यह प्रश्न मेरे सांख्य पर ज़ोर से भी guided था, जो भी हो Hegelian dialectics का संदर्भ हम भारतीय दर्शन में ज़्यादा पाते हैं, जो वैचारिक तौर पर है और वहीं आकर मैं निश्चित नहीं कर पाती कि मार्क्स का जो दोनों को मिलाकर स्वरूप दिया गया ज़्यादा वैध है या हीगेल का! मैं थोड़े संशय में हूँ, आप कहें।
शेष फिर,
सविता।
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On Sunday, May 24, 2015, Suresh Srivastava <suresh_stva@hotmail.com> wrote:
प्रिय सविता जी,

जनसत्ता में आपका आलेख पढ़ा।
मुझे लगा कि वैवाहिक बलात्कार विधेयक की आलोचना के संदर्भ से आपने पूरे समाज तथा पूरी राज्य व्यवस्था को निशाने पर लिया है।
सीधा प्रश्न 'क्या आप मानती हैं कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की सही समझ दिशाहीन समाज को दिशा देने में मदद कर सकती है?'

आशा है आप शंका का समाधान करेंगीं।


Suresh Srivastava
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