बलात्कार बनाम बलात्कारी
‘बंबई में 23 वर्षीय फोटो पत्रकार के साथ सामूहिक बलात्कार’। ‘दिल्ली में चलती बस में युवती के
साथ सामूहिक बलात्कार’। ‘झारखंड में महिला कांस्टेबल के साथ सामूहिक बलात्कार’। ‘गांव के दबंगों ने दलित के घर में घुस कर मां के
सामने बेटी के साथ बलात्कार किया’। ‘शिकायत करने गई बलात्कार पीड़िता के साथ पुलिस स्टेशन में बलात्कार’। ‘धार्मिक गुरु पर बलात्कार का आरोप’। ‘ये कुछ खबरें हैं जो आये दिन नजर
आती हैं।
‘गवाहों के मुकरने से बलात्कार के सभी आरोपी रिहा’। ‘पंचायत ने दस हजार रुपये के हर्जाने के साथ पीड़िता
को बलात्कारी के साथ समझौता करने का आदेश दिया’। ‘दिल्ली में सीरी फोर्ट ऑडीटोरियम की पार्किंग में
राजनयिका के साथ किये गये बलात्कारियों का कोई सुराग नहीं मिला’। ये है बानगी उन चंद बलात्कार के अपराधों की परिणति
की जिनमें पीड़िता को समाज ने सजा दे दी पर बलात्कारी को कोई सजा नहीं हुई।
‘सोने को सुरक्षा में रखना चाहिए, खुला छोड़ दिया जायेगा तो कोई भी चुरा लेगा’। ‘लड़कियों को घर की सुरक्षा में
रहना चाहिए’। ‘लड़कियों द्वारा पाश्चात्य सभ्यता
अपनाना बलात्कारी को खुला आमंत्रण है’।
‘निर्भया अगर बलात्कारियों को भाई बना लेती और सुरक्षा
की मांग करती तो बलात्कार न होता’। ये उद्गार हैं उन कुछ स्त्री तथा
पुरुषों के जो समाज और संस्कृति के कर्णधार हैं।
‘बलात्कारी को फांसी की सजा दी जानी चाहिए’। ‘बलात्कार के मुकदमे फास्ट ट्रैक अदालत में चलने चाहिए’। ‘बलात्कार के लिए और सख्त कानून
बनाये जाने चाहिए’। ‘लड़कियों को मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग दी जानी चाहिए’। ‘लड़कियों को घर से बाहर परिवार के किसी सदस्य के साथ
ही निकलना चाहिए’। ये कुछ मांगे हैं उन समाजसेवकों
की जो बलात्कार के खिलाफ आवाज उठाते हैं।
जिस देश में हर बीस मिनट में एक बलात्कार होता है वहां
चुनिंदा कुछ खबरें कुछ दिनों तक सुर्खियों में छायी रहती हैं पर अधिकांश तो पुलिस
की ऐफ.आई.आर. तक भी नहीं पहुंच पाती हैं। कुछ दिनों तक मीडिया तथा प्रेस में
चुनिंदा लोगों के बयान और बहस चलती रहती है और पीड़िता के साथ सहानुभूति दर्शायी
जाती है। फिर हर कोई अपने-अपने काम में जुट जाता है और पीड़िता और उसका परिवार एक
लंबे समय तक कानूनी प्रक्रिया तथा सामाजिक अपमान का दंश झेलते रहते हैं और अंत में
तीन चौथाई से ज्यादा मामलों में पुलिस तथा अभियोजन की लापरवाही से अपराधी अदालत से
बरी हो जाते हैं।
बलात्कार के मामले में बलात्कारी को फांसी की मांग बड़े जोर
से उठाई जा रही है, पर क्या यह मांग तर्क संगत है? बलात्कारी तो बलात्कार हो जाने के बाद ही अस्तित्व में आता है, पीड़िता के
प्रति हिंसा हो चुकने के बाद। पीड़िता की बलात्कार के कारण हुई शारीरिक पीड़ा तो
समय के साथ समाप्त हो जाती पर मानसिक पीड़ा का दंश व्यक्तिगत तथा सामाजिक दोनों
स्तर पर लम्बे अरसे तक सालता रहता है। जहां अनेकों लड़कियां बलात्कार के बाद
आत्महत्या कर लेती हैं वहीं मुंबई पीड़िता का बयान कि, ‘बलात्कार के बाद जीवन खत्म नहीं हो जाता है, यथाशीघ्र काम पर लौटना चाहती हूं’ दर्शाता है, कि पीड़िता व्यक्तिगत स्तर पर मानसिक
पीड़ा से किस प्रकार पार पाती है यह उसकी मानसिकता पर निर्भर करता है। पर पीड़िता
की समस्या विकराल हो जाती है समाज की बलात्कार के प्रति मानसिकता से।
समाज के मानदंड स्त्री पुरुष दोनों के लिए अलग-अलग हैं। सामाजिक
मानसिकता में पुरुष के लिए यौन शुचिता का कोई अर्थ नहीं है पर स्त्री के लिए यौन
शुचिता जीवन से भी अधिक मूल्यवान है। पुरुष के लिए परस्त्रीगमन एक नित्यकर्म की
तरह सहज है, पर स्त्री के लिए दूसरे पुरुष के साथ संभोग, चाहे उसकी अपनी मर्जी के
खिलाफ ही क्यों न हो, घोर पाप है। समाज की इस मानसिकता का भौतिक आधार संपत्ति संबंधों
में निहित है। स्त्री का शरीर पुरुष की यौनिक मांग की पूर्ति का एक साधन है औरउसके
होने वाले या हो चुके पति की संपत्ति है, और किसी और संपत्ति की भांति उसे भोगने
का अधिकार केवल उसके मालिक का ही है। स्त्री के प्रति समाज की यही मानसिकता
बलात्कार पीड़िता के दंश से जल्दी उबरने में आड़े आता है। बलात्कारी के लिए
मृत्युदंड इसी मानसिकता का द्योतक है।
स्त्रियों के प्रति यौनिक हिंसा एक विकराल समस्या है जो
समाज के लिए घातक है। इससे सभी सहमत हैं तथा इसका समाधान भी चाहते हैं। इतनी
व्यापक बहुआयामी समस्या, जो समाज के हर आयाम से जुड़ी हुई है, का हल एकआयामी
विश्लेषण द्वारा या टुकड़ों-टुकड़ों में विश्लेषण कर नहीं ढूंढा जा सकता है। द्वंद्वात्मक
विश्लेषण द्वारा ही समस्या की सही समझ तथा निदान ढूंढा जा सकता है।
बलात्कार के मामलों में समस्या को अन्य सभी प्रकार की हिंसा
से अलग कर के देखा जाता है। मुख्य किरदार तीन खांचों में रख दिये जाते हैं –
अपराधी, पीड़ित तथा कानून व्यवस्था और फिर हरएक अपने-अपने पूर्वाग्रहों के साथ एक
या एक से ज्यादा को उत्तरदायी ठहराते हुए अपने-अपने निदान सुझाता है जिसमें उसकी
स्वयं की भूमिका के अलावा बाकी सभी की भूमिका होती है। जाहिर है वह मानकर चलता है
कि वह स्वयं तो अपनी सामाजिक भूमिका पहले से ही सही-सही निभाता आ रहा है।
समस्या का द्वंद्वात्मक विश्लेषण न
कर टुकड़ों में विश्लेषण करने की मानसिकता का आधार क्या है? पूंजीवाद समाज का विखंडन करता है, मानवजाति का
एकाकियों में विखंडन, जिसमें हर किसी का अपना अलग एक सिद्धांत होता है, परमाणुओं
का संसार, इस व्यवस्था में विखंडन चरमोत्कर्ष पर होता है। इस सामाजिक-आर्थिक
व्यवस्था में हर व्यक्ति अपने को तथा औरों को स्वतंत्र इकाई के रूप में देखता है
और समाज को व्यक्तियों के केवल एक जमावड़े के रूप में। भौतिकवादी-द्वंद्वात्मक
विश्लेषण पद्धति समाज की पहचान व्यक्तियों के समूह के रूप में न कर एक चेतना के
रूप में, एक वैचारिक जैविक अस्तित्व के रूप में करती है। हर मानव मस्तिष्क जहां
व्यक्तिगत तौर पर व्यक्ति विशेष की चेतना का वाहक होता है वहीं सामूहिक तौर पर
समाज की चेतना का वाहक भी होता है। व्यक्तिगत चेतना सामाजिक चेतना को प्रभावित
करती है और सामाजिक चेतना व्यक्तिगत चेतना को प्रभावित करती है और इसी द्वंद्वात्मक
संबंध के साथ व्यक्तियों की व्यक्तिगत चेतना और समाज की सामूहिक चेतना निरंतर
परिवर्तित होती रहती हैं।
व्यक्ति की चेतना के दो आयाम होते
हैं, अवचेतन तथा चेतन और उसी के अनुरूप समाज की चेतना के भी दो आयाम होते हैं,
भौतिक तथा वैचारिक। पूंजीवादी चेतना का भौतिक आधार है उत्पादों की बिक्री के जरिए
अधिक से अधिक मुनाफा बटोरना। और इस कारण भौतिक स्तर पर मानव शरीर तथा मानवीय
भावनाएं भी उत्पाद के रूप में देखी जाने लगती हैं। ‘उत्पाद व्यक्ति से अलग एक ऐसा अवयव है जो व्यक्ति की किसी मांग को संतुष्ट
करता है, मांग का उद्गम पेट या दिमाग कुछ भी हो सकता है।’ पूंजीवादी व्यवस्था अनेकों प्रकार से व्यक्तियों की मानसिकता को प्रभावित करते
हुए इच्छाएं जगाकर मांग बढ़ाती है फिर उन मांगों की संतुष्टि के लिए उत्पाद मुहैया
कराती है।
मनुष्य की अनेकों मूलभूत मांगों
में से यौनिक मांग विशिष्ट है। जहां और मांगों की संतुष्टि अनेकों अन्य स्रोतों से
की जा सकती है वहीं यौनिक मांग की संतुष्टि के लिए एक मानव सहयोगी की आवश्यकता
होती है। पितृसत्तात्मक समाज होने के कारण संपत्ति पुरुषों के आधिपत्य में होती है
इस कारण पूंजीवादी व्यवस्था में यौनिक मांगों के संदर्भ से पुरुष वर्ग ही सबसे
बड़ा ग्राहक होता है और सारे आर्थिक-सामाजिक कार्यकलाप पुरुषों की यौनिक इच्छाओं
को उत्तेजित करने तथा उनको संतुष्ट करने और सामाजिक तथा कानूनी तौर पर स्वीकार्य
बनाने पर ही केंद्रित होते हैं।
एक ओर ग्राहक की शारीरिक मांग को
संतुष्ट करने के लिए आवश्यक उत्पाद, स्त्री शरीर, वेश्या के रूप में उपलब्ध कराने
के लिए लड़कियों के अपहरण से लेकर उनकी खरीद-फरोख्त और कानूनी वेश्याघरों की एक
पूरी अर्थिक-सामाजिक व्यवस्था हर जगह कार्यरत है। तो दूसरी ओर मानसिक स्तर पर
ग्राहक की यौनिच्छा उत्तेजित करने तथा उसे संतुष्ट करने के लिए उत्पाद के रूप में
तरह-तरह की कला तथा साहित्य के नाम पर उत्तेजक हाव-भाव के साथ स्त्री शरीर का
प्रदर्शन या रति क्रिया का चित्रण करते हुए साहित्य तथा कला का निर्माण भी इसी
अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा है।
इसी तरह एक ओर स्त्री का शरीर
वेश्या के रूप में उपलब्ध कराने के लिए वेश्या को यौनकर्मी या देवदासी कह कर
सामाजिक रूप से स्वीकार्य बनाने के तथा लाइसेंस के द्वारा कानूनी रूप से स्वीकार्य
बनाने के प्रयास निरंतर चलते रहते हैं, तो दूसरी ओर पति को परमेश्वर का दर्जा देने
तथा पत्नी के साथ जबरदस्ती संभोग को बलात्कार के दायरे से बाहर रखने जैसे कानून भी
उसी सामाजिक व्यवस्था का एक हिस्सा हैं।
सामंती चेतना और पूंजीवादी चेतना
दोनों ही अत्यंत क्लिष्ट वैचारिक संरचनाएं हैं जिन के बीच अनेकों आयामों में
अंतर्विरोध है पर स्त्री के शारीरिक तथा मानसिक शोषण के संदर्भ में दोनों एक दूसरे
की पूरक हैं।
पारिवारिक परिवेश में पति की यौनिक
मांगों को संतुष्ट करना पत्नी का पहला कर्त्तव्य है। सामाजिक चेतना के बीच स्त्री
की व्यक्तिगत चेतना इस प्रकार विकसित होती है कि अपनी यौनिकता का दमन करना और पति
की यौनिकता को संतुष्ट करना उसकी स्वयं की अवचेतना का हिस्सा बन जाती है।
परिवार के बाहर कामगार के रूप में
स्त्री या तो वेश्या के रूप में अपने शरीर के द्वारा पुरुषों की भौतिक मांगों को
संतुष्ट करे या कला, साहित्य, मनोरंजन आदि के क्षेत्र में ऐसे वातावरण का निर्माण
करने में अपनी सेवाएं दे जो पुरुष वर्ग की उत्तेजना को उभारे ताकि उन उत्तेजनाओं
को संतुष्ट करने के लिए तरह-तरह के उत्पादों का बाजार विकसित किया जा सके। सिनेमा
में आइटम सॉंग, टीवी सीरियल, सभी तरह के विज्ञापन, क्रिकेट मैच के दौरान चियर
लीडर्स, स्त्री विमर्श के नाम पर रचा जाने वाला साहित्य तथा आत्मकथाएं सभी में ऐसी
सामग्री का इस्तेमाल बढ़ता ही जा रहा है। स्त्री की देह की आजादी, सौंदर्य
प्रतियोगिताएं तथा वैलेंटाइन दिवस पर प्रेम के सार्वजनिक इजहार की आजादी के समर्थन
में किये जाने वाले आंदोलन भी इसी बाजार का एक हिस्सा हैं।
मुंबई बलात्कार कांड के दोषियों के
पकड़े जाने के बाद जो खबरें आईं हैं उनमें बताया गया है कि एक दोषी पुलिस का
मुखबिर था, कि सभी दोषी वेश्याघरों में जाते थे, कि उसी बंद मिल के परिसर में वे
पहले भी तीन बलात्कार कर चुके थे, कि वे नशे के आदी थे और कि एक दोषी एक बीडियो
पार्लर पर पोर्न देखते हुए पकड़ा गया था।
किसी पुरुष की काम वासना कब जोर
पकड़ेगी या कब नियंत्रण में रह सकेगी यह सटीक तौर पर निर्धारित कर पाना लगभग असंभव
है पर यह निश्चय ही कहा जा सकता है कि किसी व्यक्ति की स्वयं की मानसिकता से अधिक
सार्थक नियंत्रण और कोई नहीं है। इस लिए बलात्कार रोकने के लिए ऐसी सामाजिक और
व्यक्तिगत चेतना जो स्त्री को उत्पाद के रूप में न देखे, के निर्माण के लिए उचित
भौतिक परिस्थितियों के जुटाने से अधिक कारगर कदम और कोई नहीं हो सकता है।
बलात्कार जैसा अपराध हो जाने के
बाद दी जाने वाली कठोर से कठोर सजा की किसी भी मांग से ज्यादा कारगर ऐसे उपायों की
मांग होगी जो स्त्री के शरीर तथा यौनिकता को उत्पाद बनाये जाने से रोक सकें।
सुरेश श्रीवास्तव
29 अगस्त, 2013
thankyou shrivastavji. apne balatkari mansikta kis tarah nirmit hoti hai, eska bahut satik vivechan kiya hai. please rupee ke avmulyan ke pichhe ki haqikat bhe jald batai.
ReplyDelete