अनमोल बेटियाँ
बुंदेलखंड विकास परिषद झांसी की रानी के बलिदान दिवस के अवसर पर एक समारोह करने जा रही है। थीम है 'अनमोल बेटियां'। बड़ा अटपटा लगा मुझे थीम का शीर्षक। बेटियाँ तो सभी के लिए अनमोल होती हैं तो फिर 'अनमोल बेटियाँ' कौन सी होंगीं। बेटी पैदा होती है तो लक्ष्मी घर में आती है और विदा हो कर ससुराल में भी लक्ष्मी के रूप में ही क़दम रखती है। स्वर्ग भी वहीं होता है जहाँ स्त्री की पूजा होती है। तो फिर 'सस्ती बेटियां' कहाँ होंगी जिनकी तुलना में कुछ 'अनमोल बेटियाँ' हों।
लगा जैसे गाल पर किसी ने झन्नाटेदार थप्पड़ मारा हो। निर्भया, जेसिका, गीतिका, रुचिका क्या बेटियाँ नहीं थीं? क्या वे अनमोल नहीं थीं? तो फिर उनकी जान इतनी सस्ती क्यों? अपनी बेटी अनमोल लगती है तो दूसरे की बेटी सस्ती क्यो़ं? किसी भी बेटी से पूछो कि भीड़-भाड़ वाली जगह में कैसा महसूस करती है? उसे हर तरफ़ पुरुषों की भीड़ नज़र आती है जो उसे एक मादा के रूप में देखते हैं, उसके अंदर एक 'अनमोल बेटी' किसी को नज़र नहीं आती है। और बाहर ही क्यों? घर में भी तो बेटी अनमोल तभी तक है जब तक अपनी इच्छाओं को दफ़्न करके रखे और परिवार की हिदायतों को अपनी इच्छा मानती रहे। जिस क्षण अपनी मर्ज़ी से पढ़ना-लिखना चाहे, दोस्त या जीवन साथी चुनना चाहे उसी क्षण अनमोल का दर्जा खो बैठेगी। ऐसा क्यों है? क्या समाज पुरुष प्रधान है इसलिए? क्या पुरुष इसके लिए दोषी है? नहीं, प्रकृति ने तो पुरुष को बनाया ही है बेटी को जन्म देने के लिए।
पर समाज प्रकृति ने नहीं, स्त्री और पुरुष ने मिलकर बनाया है और व्यवस्थायें भी हमीं ने बनाई हैं। हम जिस पूँजीवादी व्यवस्था में रह रहे हैं उसमें जीवन जीने का एकमात्र साधन है पैसा, और मानव का शरीर तथा भावनायें सभी कुछ उत्पाद हैं जिनके विनिमय के लिए बाज़ार चारों ओर मौजूद है। सिनेमा हो, आईपीएल की चीयर लीडर हों या साबुन के विज्ञापन हों सभी में स्त्री के शरीर का प्रयोग यौन भावनाओं को उत्तेजित करने के लिये ही किया जाता है और उसे जायज़ ठहराने के लिए दलीलें अनेकों हैं। और भावनाएँ। स्त्री विमर्ष के नाम पर जो साहित्य और आत्मकथाएं लिखी जाती हैं उनमें भी स्त्री के शरीर और स्त्री पुरुष के अंतरंग संबंधों के विस्तृत वर्णन का मक़सद भी तो पाठकों की यौन भावनाओं को उत्तेजित करना ही है। जितनी ज़्यादा उत्तेजित करने वाली सामग्री होगी उतनी ही अधिक बिक्री होगी।
पूँजीवादी व्यवस्था तो बेटियों का मोल ही लगा सकती है। अनमोल बेटियाँ तो इस व्यवस्था के ख़त्म होने पर ही दिखेंगीं।
सुरेश श्रीवास्तव
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