Wednesday, 4 September 2013

भारतीय अर्थव्यवस्था पर गहराता संकट

भारतीय अर्थव्यवस्था पर गहराता संकट

अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त तीन दिग्गज अर्थशास्त्रियों के हाथ में देश की बागडोर होने के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था में भूचाल आया हुआ है और किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा है कि क्या किया जाय। जो सत्ता में बैठे हैं वे अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं और अपनी नाकामी छुपाने के लिए सभी विकासशील देशों की मुद्रा के अवमूल्यन की दलील दे रहे हैं। उनके पास समस्या का सीधा सा हल है, जनता द्वारा संयम और उपभोग में कटौती। जो सत्ता से बाहर हैं वे सरकार की जनहितकारी नीतियों को और भ्रष्टाचार रोकने में सरकार की लाचारी को दोषी ठहरा रहे हैं। उनके अनुसार समस्या का समाधान है शीघ्र चुनाव और सत्ता परिवर्तन। और वामपंथी अपनी रटी-रटायी भाषा में समस्या का ठीकरा सरकार की वैश्वीकरण की नीतियों तथा भ्रष्टाचार के सिर फोड़ रहे हैं। और उनके अनुसार समस्या का समाधान है पूंजीवाद की जगह समाजवाद की स्थापना।
जनता किंकर्तव्यविमूढ़ है। उसे तो पहले ही खाने के लाले पड़े हुए हैं कटौती कहां करे। जिनके पास इफरात है तथा पेट भरे हुए हैं उनके लिए तो गाल बजाना काफी है, वे कटौती क्यों करें। सत्ता परिवर्तन की मांग को देखें, तो जनता तो पिछले पच्चीस साल से उसी मांग को ही पूरी करती आ रही है, पर कुर्सी पर बैठ कर सभी मलकने लगते हैं और वे ही नीतियां लागू करते हैं जो पूंजीवीद के लिए मुफीद हैं। और समाजवाद के तो अनगिनत रूप पेश किये जा रहे हैं । जितनी वामपंथी पार्टियां हैं उतने ही तरह के समाजवाद हैं और उतनी ही तरह के पूंजीवाद। सब कुछ इतना गड्डमड्ड कर रखा है कि जनता को समझ ही नहीं आ रहा है कि कौन सा वाद हटाना है और कौन सा लाना है।
 ‘दार्शनिकों ने विश्व की अनेकों तरह से व्याख्या की है पर प्रश्न है उसे बदला कैसे जाय।वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद अर्थात प्रकृति के नियमों को समझने की द्वंद्वात्मक पद्धति तथा प्रकृति की भौतिकवादी व्याख्या ही, प्रकृति में सभी कुछ को, जीव जगत, मानव तथा मानव-समाज से लेकर चेतना और विकास के नियमों को समझने का एकमात्र रास्ता है। इसी पद्धति के आधार पर मानव समाज के गठन और विकास के आधार की पहचान मानव श्रम द्वारा अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन के रूप में होती है तथा उत्पत्ति से लेकर आज तक की मानव समाज की विकास यात्रा की पड़ताल ऐतिहासिक भौतिकवाद के रूप में उस पहचान को सत्यापित करती है और यही ज्ञान समाज को बदलने के लिए आगे का मार्ग प्रशस्त करता है।
प्राकृतिक नियमों का यह शाश्वत सिद्धांत ही सर्वहारा-चेतना अर्थात मार्क्सवाद की मूल अंतर्वस्तु है, यह समझना बुर्जुआ बुद्धिजीवियों के लिए उनके पूर्वाग्रहों के कारण असंभव है, और तथाकथित मार्क्सवादी धुरंधरों के लिए उनकी संशोधनवादी सोच के कारण। आम जनता के सामने अनेकों सवाल अनुत्तरित हैं, पर डालर के मुकाबले रुपये का मूल्य इतनी तेजी से क्यों गिरा, इस समय का एक यक्ष प्रश्न है सो इसकी पड़ताल फौरी जरूरत है।
प्राकृतिक पदार्थों को उपयोगी पदार्थों में परिवर्तित करने के लिए आवश्यक (एक बार में या अनेक चरणों में), एक ही सर्वव्यापी चीज है और वह है मानवीय श्रम। किसी उत्पाद का वास्तविक मूल्य होता है उसमें अंतर्निहित सामाजिक रूप से आवश्यक औसत उपयोगी मानवीय श्रम, (सामाजिक विकास स्तर तथा परिस्थितियों के अनुसार आवश्यक, निश्चित समय में खर्च की गई श्रम शक्ति), जो उत्पादन प्रक्रिया में उसमें अंतर्निहित हो जाता है।
समय के साथ मानव-समाज का सामूहिक ज्ञान बढ़ता गया है और इसके साथ ही श्रम का विभाजन तथा उत्पादक शक्तियां भी बढ़ती गयी हैं। उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ ही कामगार निश्चित समय में उससे कहीं अधिक मूल्य पैदा करने लगता है जितना कि उन साधनों का होता है जिनकी उसे अपने स्वयं के जीवन की तथा मानव जाति की निरंतरता के लिए आवश्यकता होती है। अर्थात वह अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन करने लगता है। सामूहिक रूप से उत्पादों के रूप में संचित यह अतिरिक्त मूल्य ही समाज की संपत्ति है। पर अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन के साथ ही निजी स्वामित्व की अवधारणा सामाजिक चेतना में घर कर गई और संपत्ति निजी हाथों में केंद्रित होने लगी। इसके साथ ही उपभोग के लिए पैदा किये जाने वाली उपयोगी वस्तुओं के उत्पादन और आदान-प्रदान का स्थान, विनिमय के लिए पैदा किये जाने वाले उत्पादों तथा उनके व्यापार ने ले लिया। उत्पाद उपभोक्ता से अलग एक ऐसा अस्तित्व है जो उपभोक्ता की किसी मांग की पूर्ति करता है, मांग का उद्गम पेट या मन कुछ भी हो सकता है। हर उत्पादक किसी न किसी रूप में उपभोक्ता भी होता है। पर उत्पादों के विनिमय में उत्पादक से अलग एक और वर्ग मध्य में आ जाता है, बिचौलिया या मध्यवर्ग।
मूल्य और पूंजी का अस्तित्व वैचारिक है उनका अपना भौतिक अस्तित्व कोई नहीं है। आम तौर पर लोगों में सैद्धांतिक चिंतन और समझ का अभाव होता है इस कारण वे उत्पाद की कीमत को ही मूल्य और संपत्ति को ही पूंजी समझ लेते हैं। उपभोक्ता तथा बिचौलिए के लिए एक ही उत्पाद के मूल्य का आंकलन अलग-अलग होता है। उपभोक्ता के लिए मूल्य उत्पाद की उपयोगिता से संबंधित होता है जब कि विक्रेता उत्पाद के मूल्य का आंकलन इस आधार पर करता है कि एक उत्पाद की निश्चित मात्रा के बदले में किसी अन्य उत्पाद की कितनी मात्रा हासिल की जा सकती है। भिन्न-भिन्न उत्पादों के स्वरूप तथा उपयोगिता में अंतर होता है इस कारण उत्पादों के विनिमय मूल्य की तुलना करने के लिए मानक के रूप में एक ऐसी सर्वव्यापक चीज की जरूरत होती है जो सभी उत्पादों में अंतर्निहित हो जिसके आधार पर मूल्यों की तुलना की जा सके और वह है सामाजिक रूप से आवश्यक औसत उपयोगी मानवीय श्रम। चूंकि अंतर्निहित श्रम का स्वरूप अमूर्त है इसलिए आवश्यकता होती है एक मूर्त स्वरूप की जो मूल्य के मानक के रूप में सार्वजनिक रूप से स्वीकार्य हो। ऐतिहासिक रूप से विकसित, मुद्रा ने वह भूमिका अदा की है। शुरु में मुद्रा का भौतिक स्वरूप बहुमूल्य धातु की मात्रा के रूप में होता था और उसमें अंतर्निहित मूल्य ही स्वयं मुद्रा का मूल्य होता था। पर समय के साथ राजसत्ता द्वारा सत्यापित मुद्रा, जिसका अपने उत्पादन मूल्य से कोई संबंध नहीं होता है, ने विनिमय मानक का रूप ले लिया और मुद्रा का स्वरूप भौतिक से अधिक वैचारिक हो गया। आम आदमी उत्पादों के मूल्य की तुलना उनमें संचित श्रम के आधार पर न कर मुद्रा के सर्वमान्य सत्यापित मूल्य से करने लगता है और कीमत को ही उत्पादों का मूल्य समझने लगता है।
मुद्रा द्वारा पूरी तरह वैचारिक स्वरूप धारण करने से पहले संचित मूल्य का लेन-देन उत्पाद की खरीद-बिक्री के भौतिक रूप में ही होता था, पर मुद्रा द्वारा वैचारिक स्वरूप धारण कर लेने के बाद संचित मूल्य का लेन-देन आश्वासनों और करारों के रूप में भौतिक के साथ-साथ वैचारिक रूप में भी होने लगा।
मध्यवर्ग के हाथों में संपत्ति के संचयन तथा एकत्रीकरण, और उत्पादन, संचार तथा परिवहन के क्षेत्र में विज्ञान तथा तकनीकी विकास के कारण मध्यवर्ग आगे बढ़कर बुर्जुआवर्ग के रूप में, उत्पादन संगठित तौर पर अपनी शर्तों पर करवाने लगा। बेहतर उत्पादकता तथा संगठित उत्पादन के कारण उत्पादन की लागत कम होने लगी जिससे परंपरागत उत्पादक कामगारों तथा शिल्पकारों के लिए प्रतिस्पर्धा में खड़े रहना असंभव हो गया और उत्पादन के क्षेत्र में एक नये दौर की शुरुआत हुई। अब कामगार के पास संचित श्रम के रूप में उत्पाद जैसी कोई चीज नहीं थी जिसके बदले वह अपनी जरूरत के उत्पाद जुटा सकता। विनिमय के लिए कामगार के पास थी केवल उसकी श्रमशक्ति, और जिसे अपने जीवन की निरंतरता के लिए वह श्रमशक्ति के खरीदार को खरीदार की शर्तों पर बेचने के लिए मजबूर था, इससे अस्तित्व में आया कामगार का नया स्वरूप, सर्वहारा। संपत्ति के रूप में संचित श्रम द्वारा उत्पादन पर पूरी तरह नियंत्रण के साथ ही अस्तित्व में आया संपत्ति के रूप में निष्क्रिय संचित श्रम से अलग एक सक्रिय स्वरूप, पूंजी। उत्पादन-उपभोग का चक्र पूरा होने के साथ-साथ ही अतिरिक्त मूल्य का विनियोजन भी पूरा होता है। पूरी प्रक्रिया के दौरान पूंजी के विभिन्न स्वरूप अतिरिक्त मूल्य के कुछ भाग को हस्तगत करते जाते हैं।
पूंजी पूरी तरह एक सामाजिक चेतना है जिसका स्वरूप पूरी तरह वैचारिक है और जिसका प्रकटीकरण संपत्ति या मुद्रा के रूप में होता है। पूंजी पूर्व में किये जा चुके संचित श्रम के, या भविष्य में हासिल हो सकने वाले संचित श्रम के आश्वासन के बदले में, सर्वहारा की श्रम करने की शक्ति का नियंत्रण निश्चित समय के लिए हासिल कर, उसके द्वारा पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य को हस्तगत कर स्वविस्तार करती है। पूंजीपति इस चेतना का वाहक होता है, न कि उसका मालिक। पूंजी का मूल चरित्र है उपभोक्ता की व्यक्तिगत चेतना को प्रभावित कर नई-नई मांगें पैदा करना तथा उन मांगों की पूर्ति के लिए नये-नये उत्पाद मुहैया कराना और उत्पादन-उपभोग की प्रक्रिया में भिन्न-भिन्न तरीके से अलग-अलग स्तरों पर अतिरिक्त मूल्य को बटोरना। पूंजी ने न केवल प्रकृति में उपलब्ध सभी कुछ को उत्पाद में परिवर्तित कर दिया है, बल्कि हर मानवीय तथा सामाजिक चीज यहां तक कि मानव शरीर, मन, भावनाओं तथा मानवीय संबंध को भी। किसी भी मांग का अस्तित्व पूरी तरह वैचारिक हो सकता है, इस कारण रोज नई-नई मांगों के अस्तित्व में आने की सीमा पूरी तरह सामाजिक चेतना पर निर्भर करती है, पर उत्पाद, जो किसी वैचारिक मांग की पूर्ति करता है, का आधार भौतिक ही होता है और इस कारण उन मांगों की पूर्ति की जा सकने की सीमा प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की समाज की क्षमता के अनुसार सीमित होती है।
पूंजी को किसी भी नाम से पुकार लिया जाय, औद्योगिक पूंजी, महाजनी पूंजी, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी, आवारा पूंजी, काल्पनिक पूंजी या और भी कोई जो नया नाम गढ़ा जा सके, पर सामाजिक चेतना में पूंजी एक ही चीज का पर्याय है, वह है एक ऐसा वैचारिक चेतन अस्तित्व जिसका स्वयं कोई भौतिक स्वरूप नहीं है पर जो मानव रूपी जीवों की अवचेतना में विचरता रहता है और जिसकी प्रकृति है अतिरिक्त मूल्य के रूप में संचित श्रम को हथिया कर स्वविस्तार करना। जो संशोधनवादी यह कहते हैं कि इक्कीसवीं सदी में पूंजीवाद बीसवीं सदी के पूंजीवाद से गुणात्मक रूप से भिन्न है उन्हें शायद यह भी नहीं मालूम होगा कि पहला पूंजीवादी राज्य इटली में सात सौ साल पहले चौदहवीं सदी के शुरु में अस्तित्व में आ गया था और पूंजीवाद अपनी उच्चतम अवस्था साम्राज्यवाद में पांच सौ साल पहले पहुंच चुका था।
मुद्रा की, भौतिक अस्तित्व के साथ-साथ आश्वासनों के रूप में वैचारिक अस्तित्व में मौजूदगी, मानसिक तथा बौद्धिक के आधार पर श्रमशक्ति के विभाजन के साथ सर्वहारा की मौजूदगी, भौतिक के साथ-साथ मानसिक मांगों को संतुष्ट करने की उत्पाद की क्षमता तथा उत्पादन के साधनों के रूप में भौतिक तथा पूंजी के रूप में वैचारिक अस्तित्व के साथ अतिरिक्त मूल्य की मौजूदगी के कारण पूंजीवादी सामाजिक-आर्थिक संरचना में पूरी अर्थव्यवस्था दो हिस्सों में बंट गयी है। एक वैचारिक-अर्थव्यवस्था जिसका कार्यक्षेत्र वैचारिक जगत में है तो दूसरी भौतिक-अर्थव्यवस्था जिसका कार्यक्षेत्र भौतिक जगत में है, पर जिनके बीच कोई स्पष्ट विभाजन रेखा नहीं है, बल्कि वैचारिक अर्थव्यवस्था भौतिक अर्थव्यवस्था पर ही खड़ी होती है।
उत्पादन प्रक्रिया के जरिए अधिक-से-अधिक मूल्य हड़प कर अधिक-से-अधिक स्वविस्तार की अपनी मूल प्रकृति के अनुसार पूंजी निरंतर मांग और उत्पादन बढ़ाने का प्रयास करती है। भौतिक नियमों के कारण भौतिक अर्थव्यवस्था में मांग और उत्पादन बढ़ाने की सीमाएं हैं पर वैचारिक-अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ाने की कोई सीमा नहीं है, पर हां उनकी पूर्ति के लिए आवश्यक उत्पाद का आधार भौतिक होने के कारण आपूर्ति की सीमा अपरिमित नहीं है, जिसके कारण मांग, आपूर्ति और कीमत के बीच तार्किक संबंध नहीं रह जाता है।
पूंजी तरह-तरह से उपभोक्ताओं की मानसिकता को प्रभावित कर नई-नई मांगें पैदा करती है और भविष्य में हासिल होने वाले मूल्य के आश्वासनों के आधार पर श्रमशक्ति हासिल कर ज्यादा से ज्यादा उत्पादन करती है और कृत्रिम तरीके से उपभोक्ताओं की क्रयशक्ति निरंतर बढ़ाती है। मानसिक मांगों की आपूर्ति के लिए भौतिक संसाधनों पर भी दबाव बढ़ता जाता है। एक स्थिति ऐसी आती है जब उत्पादन मांग की पूर्ति नहीं कर पाता है तो कीमतें बढ़ना शुरु होती हैं और उपभोक्ता के हाथों में आश्वासन आधारित मूल्य अर्थात मुद्रा का मूल्य तुलनात्मक रूप से घटने लगता है। और अधिक ह्रास की आशंका से उपभोक्ता आश्वासनों के रूप में हासिल मूल्य को जल्दी से जल्दी भौतिक अस्तित्व में बदलने का प्रयास करता है। परिस्थिति पर नियंत्रण करने के सभी प्रयासों के बावजूद कुछ समय बाद पूंजी के नियंत्रकों के आश्वसनों से सामूहिक रूप से भरोसा उठने लगता है और भगदड़ की स्थिति के कारण आर्थिक संकट पैदा हो जाता। कुछ समय बाद आश्वासनों के आधार पर  पैदा किया गया कृत्रिम मूल्य उपभोक्ताओं के हाथ से निकल जाता है और फिर नया चक्र शुरु हो जाता है।
पूंजी किसी भी राष्ट्रराज्य की सीमाओं में हो, पूंजी की प्रकृति और कार्यप्रणाली वही रहती है। देर-सवेर इसी चक्र से गुजरना सभी पूंजीवादी व्यवस्थाओं की नियति है। सैद्धांतिक चिंतन की कमी के कारण आमतौर पर लोग मूल्य तथा मुद्रा के भौतिक और वैचारिक आयामों में भेद नहीं कर पाते हैं और उत्पादों की कीमतों के बढ़ने पर तुलनात्मक रूप से मुद्रा की कीमत में होने वाली कमी को नहीं देख पाते हैं।
समय के साथ व्यापार तथा वाणिज्य का स्तर अंतर्राष्ट्रीय हो जाने पर उत्पादों के विनिमय के लिए एक सर्वमान्य मानक के न होने से पैदा हुई समस्या से निपटने के लिए, पहले बैंको के अनुबंध पत्रों के आधार पर मुद्रा का अंतरण होने लगा और फिर 1944 में ब्रैटन वुड्स समझौते के बाद डॉलर को सर्वमान्य मानक स्वीकार कर लिए जाने के बाद अंतर्राष्ट्रीय विनमय में, अपने भौतिक स्वरूप को छोड़ कर वैचारिक स्वरूप में मुद्रा स्वयं एक उत्पाद हो गई है। तकनीकी विकास और ई-बैंकिंग के साथ मुद्रा राष्ट्रीय स्तर पर भी अपना भौतिक स्वरूप छोड़कर पूरी तरह वैचारिक स्वरूप धारण करती जा रही है। पहले राष्ट्रराज्य की सीमाओं में बंटीं अर्थव्यवस्थाएं, सीमाएं लांघकर एकीकृत वैश्विक अर्थव्यवस्था में परिवर्तित होती जा रही हैं और पूंजी तथा उत्पादों के लिए सीमाएं बेमानी होती जा रही हैं।
ऐसी परिस्थिति में समय-समय पर रुपया नामक मुद्रा जो स्वयं भी एक उत्पाद बन चुका है, के मूल्य में या डालर की तुलना में उसकी कीमत में गिरावट कोई अचरज की बात नहीं है। और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा के रूप डालर के मूल्य में गिरावट को न समझ पाने के लिए गैर-मार्क्सवादी तथा संशोधनवादी-मार्क्सवादी दोनों ही अभिशप्त हैं।

सुरेश श्रीवास्तव
1 सितम्बर, 2013               
       



Thursday, 29 August 2013

बलात्कार बनाम बलात्कारी

बलात्कार बनाम बलात्कारी

बंबई में 23 वर्षीय फोटो पत्रकार के साथ सामूहिक बलात्कारदिल्ली में चलती बस में युवती के साथ सामूहिक बलात्कारझारखंड में महिला कांस्टेबल के साथ सामूहिक बलात्कारगांव के दबंगों ने दलित के घर में घुस कर मां के सामने बेटी के साथ बलात्कार कियाशिकायत करने गई बलात्कार पीड़िता के साथ पुलिस स्टेशन में बलात्कारधार्मिक गुरु पर बलात्कार का आरोपये कुछ खबरें हैं जो आये दिन नजर आती हैं।  
गवाहों के मुकरने से बलात्कार के सभी आरोपी रिहापंचायत ने दस हजार रुपये के हर्जाने के साथ पीड़िता को बलात्कारी के साथ समझौता करने का आदेश दियादिल्ली में सीरी फोर्ट ऑडीटोरियम की पार्किंग में राजनयिका के साथ किये गये बलात्कारियों का कोई सुराग नहीं मिला। ये है बानगी उन चंद बलात्कार के अपराधों की परिणति की जिनमें पीड़िता को समाज ने सजा दे दी पर बलात्कारी को कोई सजा नहीं हुई।
सोने को सुरक्षा में रखना चाहिए, खुला छोड़ दिया जायेगा तो कोई भी चुरा लेगालड़कियों को घर की सुरक्षा में रहना चाहिएलड़कियों द्वारा पाश्चात्य सभ्यता अपनाना बलात्कारी को खुला आमंत्रण हैनिर्भया अगर बलात्कारियों को भाई बना लेती और सुरक्षा की मांग करती तो बलात्कार न होता। ये उद्गार हैं उन कुछ स्त्री तथा पुरुषों के जो समाज और संस्कृति के कर्णधार हैं।
बलात्कारी को फांसी की सजा दी जानी चाहिएबलात्कार के मुकदमे फास्ट ट्रैक अदालत में चलने चाहिएबलात्कार के लिए और सख्त कानून बनाये जाने चाहिएलड़कियों को मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग दी जानी चाहिएलड़कियों को घर से बाहर परिवार के किसी सदस्य के साथ ही निकलना चाहिए। ये कुछ मांगे हैं उन समाजसेवकों की जो बलात्कार के खिलाफ आवाज उठाते हैं।
जिस देश में हर बीस मिनट में एक बलात्कार होता है वहां चुनिंदा कुछ खबरें कुछ दिनों तक सुर्खियों में छायी रहती हैं पर अधिकांश तो पुलिस की ऐफ.आई.आर. तक भी नहीं पहुंच पाती हैं। कुछ दिनों तक मीडिया तथा प्रेस में चुनिंदा लोगों के बयान और बहस चलती रहती है और पीड़िता के साथ सहानुभूति दर्शायी जाती है। फिर हर कोई अपने-अपने काम में जुट जाता है और पीड़िता और उसका परिवार एक लंबे समय तक कानूनी प्रक्रिया तथा सामाजिक अपमान का दंश झेलते रहते हैं और अंत में तीन चौथाई से ज्यादा मामलों में पुलिस तथा अभियोजन की लापरवाही से अपराधी अदालत से बरी हो जाते हैं।
बलात्कार के मामले में बलात्कारी को फांसी की मांग बड़े जोर से उठाई जा रही है, पर क्या यह मांग तर्क संगत है? बलात्कारी तो बलात्कार हो जाने के बाद ही अस्तित्व में आता है, पीड़िता के प्रति हिंसा हो चुकने के बाद। पीड़िता की बलात्कार के कारण हुई शारीरिक पीड़ा तो समय के साथ समाप्त हो जाती पर मानसिक पीड़ा का दंश व्यक्तिगत तथा सामाजिक दोनों स्तर पर लम्बे अरसे तक सालता रहता है। जहां अनेकों लड़कियां बलात्कार के बाद आत्महत्या कर लेती हैं वहीं मुंबई पीड़िता का बयान कि, बलात्कार के बाद जीवन खत्म नहीं हो जाता है, यथाशीघ्र काम पर लौटना चाहती हूंदर्शाता है, कि पीड़िता व्यक्तिगत स्तर पर मानसिक पीड़ा से किस प्रकार पार पाती है यह उसकी मानसिकता पर निर्भर करता है। पर पीड़िता की समस्या विकराल हो जाती है समाज की बलात्कार के प्रति मानसिकता से।
समाज के मानदंड स्त्री पुरुष दोनों के लिए अलग-अलग हैं। सामाजिक मानसिकता में पुरुष के लिए यौन शुचिता का कोई अर्थ नहीं है पर स्त्री के लिए यौन शुचिता जीवन से भी अधिक मूल्यवान है। पुरुष के लिए परस्त्रीगमन एक नित्यकर्म की तरह सहज है, पर स्त्री के लिए दूसरे पुरुष के साथ संभोग, चाहे उसकी अपनी मर्जी के खिलाफ ही क्यों न हो, घोर पाप है। समाज की इस मानसिकता का भौतिक आधार संपत्ति संबंधों में निहित है। स्त्री का शरीर पुरुष की यौनिक मांग की पूर्ति का एक साधन है औरउसके होने वाले या हो चुके पति की संपत्ति है, और किसी और संपत्ति की भांति उसे भोगने का अधिकार केवल उसके मालिक का ही है। स्त्री के प्रति समाज की यही मानसिकता बलात्कार पीड़िता के दंश से जल्दी उबरने में आड़े आता है। बलात्कारी के लिए मृत्युदंड इसी मानसिकता का द्योतक है।  
स्त्रियों के प्रति यौनिक हिंसा एक विकराल समस्या है जो समाज के लिए घातक है। इससे सभी सहमत हैं तथा इसका समाधान भी चाहते हैं। इतनी व्यापक बहुआयामी समस्या, जो समाज के हर आयाम से जुड़ी हुई है, का हल एकआयामी विश्लेषण द्वारा या टुकड़ों-टुकड़ों में विश्लेषण कर नहीं ढूंढा जा सकता है। द्वंद्वात्मक विश्लेषण द्वारा ही समस्या की सही समझ तथा निदान ढूंढा जा सकता है।
बलात्कार के मामलों में समस्या को अन्य सभी प्रकार की हिंसा से अलग कर के देखा जाता है। मुख्य किरदार तीन खांचों में रख दिये जाते हैं – अपराधी, पीड़ित तथा कानून व्यवस्था और फिर हरएक अपने-अपने पूर्वाग्रहों के साथ एक या एक से ज्यादा को उत्तरदायी ठहराते हुए अपने-अपने निदान सुझाता है जिसमें उसकी स्वयं की भूमिका के अलावा बाकी सभी की भूमिका होती है। जाहिर है वह मानकर चलता है कि वह स्वयं तो अपनी सामाजिक भूमिका पहले से ही सही-सही निभाता आ रहा है।
समस्या का द्वंद्वात्मक विश्लेषण न कर टुकड़ों में विश्लेषण करने की मानसिकता का आधार क्या है? पूंजीवाद समाज का विखंडन करता है, मानवजाति का एकाकियों में विखंडन, जिसमें हर किसी का अपना अलग एक सिद्धांत होता है, परमाणुओं का संसार, इस व्यवस्था में विखंडन चरमोत्कर्ष पर होता है। इस सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में हर व्यक्ति अपने को तथा औरों को स्वतंत्र इकाई के रूप में देखता है और समाज को व्यक्तियों के केवल एक जमावड़े के रूप में। भौतिकवादी-द्वंद्वात्मक विश्लेषण पद्धति समाज की पहचान व्यक्तियों के समूह के रूप में न कर एक चेतना के रूप में, एक वैचारिक जैविक अस्तित्व के रूप में करती है। हर मानव मस्तिष्क जहां व्यक्तिगत तौर पर व्यक्ति विशेष की चेतना का वाहक होता है वहीं सामूहिक तौर पर समाज की चेतना का वाहक भी होता है। व्यक्तिगत चेतना सामाजिक चेतना को प्रभावित करती है और सामाजिक चेतना व्यक्तिगत चेतना को प्रभावित करती है और इसी द्वंद्वात्मक संबंध के साथ व्यक्तियों की व्यक्तिगत चेतना और समाज की सामूहिक चेतना निरंतर परिवर्तित होती रहती हैं।
व्यक्ति की चेतना के दो आयाम होते हैं, अवचेतन तथा चेतन और उसी के अनुरूप समाज की चेतना के भी दो आयाम होते हैं, भौतिक तथा वैचारिक। पूंजीवादी चेतना का भौतिक आधार है उत्पादों की बिक्री के जरिए अधिक से अधिक मुनाफा बटोरना। और इस कारण भौतिक स्तर पर मानव शरीर तथा मानवीय भावनाएं भी उत्पाद के रूप में देखी जाने लगती हैं। उत्पाद व्यक्ति से अलग एक ऐसा अवयव है जो व्यक्ति की किसी मांग को संतुष्ट करता है, मांग का उद्गम पेट या दिमाग कुछ भी हो सकता है। पूंजीवादी व्यवस्था अनेकों प्रकार से व्यक्तियों की मानसिकता को प्रभावित करते हुए इच्छाएं जगाकर मांग बढ़ाती है फिर उन मांगों की संतुष्टि के लिए उत्पाद मुहैया कराती है।
मनुष्य की अनेकों मूलभूत मांगों में से यौनिक मांग विशिष्ट है। जहां और मांगों की संतुष्टि अनेकों अन्य स्रोतों से की जा सकती है वहीं यौनिक मांग की संतुष्टि के लिए एक मानव सहयोगी की आवश्यकता होती है। पितृसत्तात्मक समाज होने के कारण संपत्ति पुरुषों के आधिपत्य में होती है इस कारण पूंजीवादी व्यवस्था में यौनिक मांगों के संदर्भ से पुरुष वर्ग ही सबसे बड़ा ग्राहक होता है और सारे आर्थिक-सामाजिक कार्यकलाप पुरुषों की यौनिक इच्छाओं को उत्तेजित करने तथा उनको संतुष्ट करने और सामाजिक तथा कानूनी तौर पर स्वीकार्य बनाने पर ही केंद्रित होते हैं।
एक ओर ग्राहक की शारीरिक मांग को संतुष्ट करने के लिए आवश्यक उत्पाद, स्त्री शरीर, वेश्या के रूप में उपलब्ध कराने के लिए लड़कियों के अपहरण से लेकर उनकी खरीद-फरोख्त और कानूनी वेश्याघरों की एक पूरी अर्थिक-सामाजिक व्यवस्था हर जगह कार्यरत है। तो दूसरी ओर मानसिक स्तर पर ग्राहक की यौनिच्छा उत्तेजित करने तथा उसे संतुष्ट करने के लिए उत्पाद के रूप में तरह-तरह की कला तथा साहित्य के नाम पर उत्तेजक हाव-भाव के साथ स्त्री शरीर का प्रदर्शन या रति क्रिया का चित्रण करते हुए साहित्य तथा कला का निर्माण भी इसी अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा है।
इसी तरह एक ओर स्त्री का शरीर वेश्या के रूप में उपलब्ध कराने के लिए वेश्या को यौनकर्मी या देवदासी कह कर सामाजिक रूप से स्वीकार्य बनाने के तथा लाइसेंस के द्वारा कानूनी रूप से स्वीकार्य बनाने के प्रयास निरंतर चलते रहते हैं, तो दूसरी ओर पति को परमेश्वर का दर्जा देने तथा पत्नी के साथ जबरदस्ती संभोग को बलात्कार के दायरे से बाहर रखने जैसे कानून भी उसी सामाजिक व्यवस्था का एक हिस्सा हैं।
सामंती चेतना और पूंजीवादी चेतना दोनों ही अत्यंत क्लिष्ट वैचारिक संरचनाएं हैं जिन के बीच अनेकों आयामों में अंतर्विरोध है पर स्त्री के शारीरिक तथा मानसिक शोषण के संदर्भ में दोनों एक दूसरे की पूरक हैं।
पारिवारिक परिवेश में पति की यौनिक मांगों को संतुष्ट करना पत्नी का पहला कर्त्तव्य है। सामाजिक चेतना के बीच स्त्री की व्यक्तिगत चेतना इस प्रकार विकसित होती है कि अपनी यौनिकता का दमन करना और पति की यौनिकता को संतुष्ट करना उसकी स्वयं की अवचेतना का हिस्सा बन जाती है।
परिवार के बाहर कामगार के रूप में स्त्री या तो वेश्या के रूप में अपने शरीर के द्वारा पुरुषों की भौतिक मांगों को संतुष्ट करे या कला, साहित्य, मनोरंजन आदि के क्षेत्र में ऐसे वातावरण का निर्माण करने में अपनी सेवाएं दे जो पुरुष वर्ग की उत्तेजना को उभारे ताकि उन उत्तेजनाओं को संतुष्ट करने के लिए तरह-तरह के उत्पादों का बाजार विकसित किया जा सके। सिनेमा में आइटम सॉंग, टीवी सीरियल, सभी तरह के विज्ञापन, क्रिकेट मैच के दौरान चियर लीडर्स, स्त्री विमर्श के नाम पर रचा जाने वाला साहित्य तथा आत्मकथाएं सभी में ऐसी सामग्री का इस्तेमाल बढ़ता ही जा रहा है। स्त्री की देह की आजादी, सौंदर्य प्रतियोगिताएं तथा वैलेंटाइन दिवस पर प्रेम के सार्वजनिक इजहार की आजादी के समर्थन में किये जाने वाले आंदोलन भी इसी बाजार का एक हिस्सा हैं।
मुंबई बलात्कार कांड के दोषियों के पकड़े जाने के बाद जो खबरें आईं हैं उनमें बताया गया है कि एक दोषी पुलिस का मुखबिर था, कि सभी दोषी वेश्याघरों में जाते थे, कि उसी बंद मिल के परिसर में वे पहले भी तीन बलात्कार कर चुके थे, कि वे नशे के आदी थे और कि एक दोषी एक बीडियो पार्लर पर पोर्न देखते हुए पकड़ा गया था।
किसी पुरुष की काम वासना कब जोर पकड़ेगी या कब नियंत्रण में रह सकेगी यह सटीक तौर पर निर्धारित कर पाना लगभग असंभव है पर यह निश्चय ही कहा जा सकता है कि किसी व्यक्ति की स्वयं की मानसिकता से अधिक सार्थक नियंत्रण और कोई नहीं है। इस लिए बलात्कार रोकने के लिए ऐसी सामाजिक और व्यक्तिगत चेतना जो स्त्री को उत्पाद के रूप में न देखे, के निर्माण के लिए उचित भौतिक परिस्थितियों के जुटाने से अधिक कारगर कदम और कोई नहीं हो सकता है।
बलात्कार जैसा अपराध हो जाने के बाद दी जाने वाली कठोर से कठोर सजा की किसी भी मांग से ज्यादा कारगर ऐसे उपायों की मांग होगी जो स्त्री के शरीर तथा यौनिकता को उत्पाद बनाये जाने से रोक सकें।

सुरेश श्रीवास्तव

29 अगस्त, 2013 

Sunday, 23 June 2013

खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश




क्या मार्क्सवादियों  को खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का विरोध करना चाहिेये? 

मार्क्स ने कहा था 'सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने पर स्वयं भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है। सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने में सक्षम तब होता है जब वह पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब करता है, और वह पूर्वाग्रहों को तब बेनक़ाब करता है जब वह मूलाग्रही होता है। मूलाग्रही होने का मतलब है चीजों को उनके मूल के ज़रिये  समझना।' और एंटी ड्युहरिंग की प्रस्तावना में ऐंगेल्स ने लिखा था 'लेकिन सैद्धांतिक चिंतन प्रकृति प्रदत्त गुण है अगर केवल प्राकृतिक क्षमता की बात करें तो। इस क्षमता को विकसित किया जाना चाहिये, उसे परिष्कृत किया जाना चाहिये, और उसके परिमार्जन का अभी तक और कोई तरीक़ा नहीं है सिवाय इसके कि पिछले दर्शन का अध्ययन किया जाये।'  
     वामपंथी जिसका विरोध कर रहे हैं वह है मल्टी ब्रैंडेड खुदरा व्यापार में पूर्ण स्वामित्व आधारित विदेशी निवेश। सैद्धांतिक रूप से वे ब्रैंडेड माल के खुदरा व्यापार में पूूर्ण-स्वामित्व आधारित विदेशी निवेश के विरोध में नहीं हैं। अर्थात अगर कोई विदेशी संगठन एक ही ब्रैंड के माल की खुदरा बिक्री के लिए प्रतिष्ठान स्थापित करना चाहता है तो उसके ऐसा पूर्ण स्वामित्व के अंतर्गत करने पर वामपंथियों को कोई ऐतराज़ नहीं है पर अगर वह अनेकों ब्रैंड के माल की खुदरा बिक्री पूर्ण स्वामित्व के अंतर्गत करना चाहता है तो वामपंथियों को ऐतराज़ है। वामपंथियों के विरोध का आधार यह दलील है कि छोटे-छोटे दुकानदार व व्यापारी जो अपनी आजीविका अनेकों ब्रैंड के माल की खुदरा बिक्री आधारित स्वरोज़गार के ज़रिए कमाते हैं उनके लिए विदेशी निवेशकों के सामने प्रतिस्पर्धा में टिक पाना असंभव होगा और करोड़ों दुकानों के बंद होने से एक ओर करोड़ों दुकानदार तथा व्यापारी बेरोज़गार हो जायेंगे और दूसरी ओर बड़े संस्थानों के एकाधिकार के कारण जहां लघु उद्योगों तथा किसानों को उनके उत्पादों का मूल्य कम मिलेगा वहीं उपभोक्ता को अधिक मूल्य चुकाना पड़ेगा।
ऊपर उठाये गये प्रश्न का सही उत्तर वामपंथियों की दलील के सही-सही सैद्धांतिक विश्लेषण के द्वारा ही हासिल किया जा सकता है। 
सारे विवाद के केंद्र में है उत्पाद तथा उत्पाद का मूल्य, और विवाद है उत्पादक या श्रमिक तथा वितरक या बिचौलिये के बीच क्रेता द्वारा चुकायी गयी क़ीमत के उचित बँटवारे को लेकर। जहाँ मार्क्सवादियों को मार्क्स द्वारा स्थापित मूल्य की अवधारणा से आज भी पूरा इत्तफ़ाक़ है वहीं वामपंथियों ने विज्ञान, तकनीकी तथा संचार के क्षेत्र में पिछले 150 सालों में हुए अभूतपूर्व विकास की दलीलें देते हुए न केवल मार्क्स की मूल्य की अवधारणा को बल्कि मार्क्सवाद की अनेकों सैद्धांतिक अवधारणाओं को भी संशोधित कर अपने साथ-साथ जनता को भी भ्रमित किया है। मार्क्सवाद की मूल्य की व्याख्या को छोड़ देने के बाद वामपंथी न शोषण की प्रक्रिया को समझ पा रहे हैं और ना ही पूँजी तथा पूँजीवाद की संरचना (अंतर्वस्तु तथा अधिरचना) और उनके आंतरिक द्वंद्वों को। आइये हम यहाँ उठाये गये विवाद के विभिन्न पहलुओं के अवयवों का अलग-अलग और एकीकृत विश्लेषण करें। 
मार्क्सवाद के अनुसार प्राकृतिक संसाधनों को सामूहिक मानवीय श्रम द्वारा मानवीय उपभोग के लिए परिवर्तित करने की प्रक्रिया ही मानव समाज के गठन का आधार है। भिन्न-भिन्न प्रकार की उपयोगी वस्तुओं में एक ही चीज़ है जो बिना किसी अपवाद सामान्य रूप से विद्यमान है और वह है उत्पाद में अन्तर्निहित संचित श्रम। अर्थात सामाजिक रूप से आवश्यक वह श्रम जो प्राकृतिक रूप से उपलब्ध पदार्थ को विभिन्न चरणों में परिवर्तित कर अंततः उत्पाद के रूप में किसी मानवीय मांग की आपूर्ति करता है। मांग का उद्गम शारीरिक है या वैचारिक इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। समय के साथ-साथ मानव के संचित सामूहिक ज्ञान में इज़ाफा होता जाता है और इसके साथ ही बढ़ती जाती हैं उत्पादक शक्तियाँ। मानव समाज का सामूहिक ज्ञान और उत्पादक शक्तियां एक दूसरे की पूरक हैं और दोनों का निरंतर विकास प्रकृति का शाश्वत नियम है। उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ ही श्रम शक्ति की उत्पादकता भी बढ़ती जाती है। 

उत्पादक शक्तियों के बढ़ने के साथ ही अस्तित्व में आया श्रम-विभाजन। जहां पहले जीवनोपयोगी सारे उत्पाद एक ही परिवार या समूह द्वारा पैदा किये जाते थे और समूह की न्यूनतम माँगों की आपूर्ति ही कर पाते थे वहीं अब एक परिवार एक ही उत्पाद बनाने लगा था पर उसकी मात्रा अनेकों परिवारों तथा समूहों की बढ़ी हुई मांग की आपूर्ति करने में सक्षम थी। श्रम विभाजन के साथ ही अस्तित्व में आ गई विभिन्न उत्पादक-उपभो़क्ताओं के बीच उत्पादों के आदान-प्रदान की प्रक्रिया। उस स्तर पर सामाजिक संरचना में हर व्यक्ति एक समय पर उपभोक्ता के रूप में था तो किसी और समय पर उत्पादक के रूप में। इस कारण आदान-प्रदान की प्रक्रिया में उत्पादों की तुलनात्मक मात्रा सहज और अनजाने ही उनमें निहित संचित श्रम के आधार पर तय हो जाती थी। सामाजिक रूप से मान्य आदान-प्रदान की इस प्रक्रिया में उत्पादों की तुलना का मापदंड, उनमें अन्तर्निहित सामाजिक रूप से आवश्यक मानवीय श्रम, सामाजिक चेतना का अंग था और उसके लिए किसी अनुपयोगी भौतिक पदार्थ की ज़रूरत नहीं थी।
अगले चरण में उन्नत औज़ारों तथा यातायात के साधनों के कारण उत्पादन और आदान-प्रदान उस स्तर पर पहुँच गये जहाँ हर उत्पादक को हर उत्पाद की जरूरत नहीं थी और उत्पादक-उपभोक्ता के बीच सीधा संबंध संभव नहीं रह गया था। इसलिए आवश्यकता हुई एक बिचौलिए की जो उत्पादकों से उत्पाद लेकर उपभोक्ताओं तक पहुंचा सके और अपनी सेवाओं के बदले अपनी ज़रूरत के उत्पाद हासिल कर सके। उत्पादन-उपभोग की श्रंखला में न केवल कामगार का उत्पादक कार्य बल्कि उत्पाद को उपभोक्ता तक पहुँचाने में लगने वाला बिचौलिये का कार्य भी, प्राकृतिक पदार्थों को मानवीय उपभोग के लिए परिवर्तित करने की प्रक्रिया का ही एक चरण हो गया और कामगार के उत्पादक श्रम के साथ उसका श्रम भी उत्पाद में अन्तर्निहित संचित मानवीय श्रम का हिस्सा हो गया। अब मानव समाज के गठन का आधार उत्पादन-उपभोग की श्रंखला से बढ़ कर उत्पादन-वितरण-उपभोग की श्रंखला में बदल गया। जीवनोपयोगी वस्तुओं के आदान-प्रदान का स्थान ले लिया उत्पादों के विनिमय ने।
निरंतर उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ ही बिचौलिये को निरंतर बढ़ती मात्रा में विविध प्रकार के ऐसे उत्पादों का विनिमय करना होता था जिनका उसके अपने लिये कोई उपयोग नहीं था इसलिए आवश्यकता थी सर्वमान्य एक ऐसे उत्पाद की जिसके बदले में सभी उत्पादों का आदान-प्रदान किया जा सके। अपने भौतिक गुणों के कारण सोने-चाँदी ने वह आवश्यकता पूरी की और उत्पादों के आपसी आदान-प्रदान का स्थान ले लिया क़ीमती धातुओं के माध्यम से होने वाले विनिमय ने। 
  धीरे-धीरे सभी उत्पादों का विनिमय सोने-चाँदी के बदले में होने लगा। और उत्पादक, उपभोक्ता और  बिचौलिया सभी उत्पादों का उपयोगी मूल्य उनमें अंतर्निहित संचित मानवीय श्रम के रूप में न देख कर सोने-चांदी की मात्रा के रूप में देखने लगे। शनै-शनै सामाजिक चेतना में विनिमय मूल्य ही मूल्य का पर्याय बन गया। 
उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ श्रमिक उससे कहीं अधिक मूल्य पैदा करने लगता है जितना उसके स्वयं के रख रखाव तथा निरंतरता के लिए आवश्यक उत्पादों का कुल मिलाकर होता है। दूसरे शब्दों में वह 'अतिरिक्त मूल्य' पैदा करने लगता है। सोने-चाँदी की निश्चित मात्रा के बदले में कामगार, उत्पादक के तौर पर बिचौलिये को जितना संचित-श्रम सौंपता है, अपभोक्ता के तौर पर उससे कम पाता है। अर्थात कामगार के लिए किसी भी उत्पाद का क्रय मूल्य उसके विक्रय मूल्य से अधिक होता है। इसके बिल्कुल उलट बिचौलिया कम क़ीमत पर ख़रीद कर उसी उत्पाद को अधिक क़ीमत पर बेचता है। बिचौलिये को होने वाली कमाई का संबंध उसके श्रम से न हो कर उसके द्वारा ख़रीदे और बेचे गये उत्पादों के मूल्य के अंतर से हो गया है। जितना ज़्यादा विनिमय उतनी ही अधिक कमाई।
उत्पादन-उपभोग की प्रक्रिया में श्रम विभाजन के आधार पर उत्पादक तथा बिचौलियों की मौजूदगी के वाबजूद, उत्पाद का वितरण आदान-प्रदान के आधार पर होने के कारण, अभी तक समाज आर्थिक हितों के आधार पर वर्गों में विभाजित नहीं था क्योंकि हर कोई किसी न किसी रूप में उत्पादक था। पर उत्पादों का वितरण विनिमय मूल्य के आधार पर होने के कारण बिचौलिये का हित उसके श्रम से असंबद्ध हो कर अतिरिक्त मूल्य से संबद्ध हो गया और अतिरिक्त मूल्य में उत्पादक तथा बिचौलिये के हित परस्पर विरोधी होने के कारण समाज दो वर्गों में विभाजित हो गया, उत्पादक और बिचौलिया। 
उत्पादक शक्तियों का निरंतर विकास सामाजिक-संरचना की प्रकृति है और जहाँ पहले कच्चे माल को उत्पाद में परिवर्तित करने की प्रक्रिया एक ही कामगार द्वारा पूरी की जाती थी वहीं अब पूरी प्रक्रिया अनेकों चरणों में बंट कर अनेकों कामगारों द्वारा पूरी की जाने लगी। कई चरणों में बंटी प्रक्रिया ने जहां प्रत्यक्ष रूप से कामगारों को विभाजित किया वहीं परोक्ष तौर पर पूरी उत्पादन क्रिया ने अवचेतन स्तर पर कामगारों को एक किया। उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ, श्रमिक, श्रम-विभाजन और यांत्रिक तथा स्वचलित मशीनों के प्रयोग के कारण, एक निश्चित श्रम-काल में, पहले के मुकाबले कहीं अधिक उत्पाद पैदा करने लगता है और हर उत्पाद में पहले के मुकाबले कम श्रम अंतर्निहित होने लगता है अर्थात उत्पादों का मूल्य कम होता जाता है।
 धीमे-धीमे उत्पादन इतनी अधिक मात्रा में होने लगा कि उत्पादों का विनिमय समाज की भौगोलिक सीमाओं के पार अपरिहार्य हो गया। विस्तृत विनिमय ने क़बीलाई सीमाओं को तोड़ कर राज्यों के गठन का रास्ता खोल दिया। राज्यों के गठन के साथ क़बीलाई सत्ता का स्थान राजसत्ता ने ले लिया। 
भौतिक उत्पाद होने के नाते सोना-चाँदी उपभोग की वस्तुएँ भी थीं और अलग-अलग क्षेत्रों में तकनीकी विकास का स्तर अलग-अलग होने के कारण उनका मूल्य भी अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग होता था। विनिमय के क्षेत्र के भौगोलिक विस्तार के कारण सोने-चाँदी की मात्रात्मक इकाई के आधार पर होने वाले विनिमय में विसंगतियाँ पैदा होने लगीं। और विसंगतियों को दूर करने के लिए राज्य द्वारा प्रमाणित मानक इकाई अर्थात सिक्के या मुद्रा ने विनिमय के मानक के रूप में सोने-चाँदी की मात्रात्मक इकाई का स्थान ले लिया। राज्य द्वारा प्रमाणित होने के कारण मुद्रा के भौतिक स्वरूप (अधिरचना) का प्रतिबिंब सामाजिक चेतना में मुद्रा के मूल्य (आंतरिक रचना) का पर्याय बनता चला गया और वास्तविक मूल्य उसके विनिमय मूल्य से असंबद्ध होता चला गया और अंततः सामाजिक रूप से स्वीकार्य मुद्रा के विनिमय मूल्य का सिक्कों में अंतर्निहित संचित श्रम अर्थात सोने-चाँदी की मात्रा से कोई संबंद्ध नहीं रह गया। अब विनिमय की मानक मुद्रा का रूपांतरण एक भौतिक उत्पाद की जगह सामाजिक-वैचारिक उत्पाद के रूप में हो गया। अब मुद्रा पर्याय हो गई सामाजिक रूप से मान्य इस आश्वासन की कि राजसत्ता के द्वारा सत्यापित मुद्रा के बदले में निश्चित मानवीय श्रम हासिल किया जा सकता है - पहले से किया जा चुका संचित श्रम, उत्पाद के रूप में, या भविष्य में श्रम-शक्ति द्वारा निर्धारित समय में किया जा सकने वाला श्रम, मज़ूरी के रूप में।
सामाजिक रूप से मान्य आश्वासन के साथ उत्पाद के मूल्य ने, उत्पाद के भौतिक स्वरूप अर्थात उसमें अंतर्निहित संचित-श्रम से पूरी तरह से असंबद्ध, सामाजिक-वैचारिक चेतना में अवस्थित एक विचार का रूप ले लिया और मुद्रा उस विचार का मूर्त रूप बन गई। मुद्रा का भौतिक स्वरूप कुछ भी हो उसका स्वयं का, क़ीमत या विनिमय के मानक की इकाई के रूप में, मूल्य पूरी तरह एक वैचारिक वस्तु है, राजसत्ता के आश्वासन का पर्याय। इसके साथ ही एक और नई परिस्थिति पैदा हुई। पहले मानवीय-श्रम मुद्रा के भौतिक अस्तित्व से संबद्ध था इस कारण बिचौलियों के पास संपत्ति के रूप में संचित मानवीय श्रम की सीमा थी और हेराफेरी की संभावना कम थी पर मानवीय-श्रम के, मुद्रा के राजसत्ता प्रदत्त आश्वासन के वैचारिक स्वरूप के साथ संबद्ध हो जाने के कारण हेराफेरी करना आसान हो गया था। पहले प्राकृतिक संपदा सामूहिक स्वामित्व में होने के कारण कामगार को सहज सुलभ थी और उत्पादन के औज़ार कामगार के स्वामित्व में थे इस कारण उत्पाद और उसमें अंतर्निहित अतिरिक्त मूल्य भी कामगार के आधिपत्य में रहता था पर अब बदली हुई परिस्थिति में बिचौलियों ने राजसत्ता की मदद से प्राकृतिक संसाधनों का अधिग्रहण करना शुरु कर दिया। इसके साथ ही संचित संपत्ति पर अधिकार के चलते उत्पादन के साधनों में विकास का सारा फ़ायदा भी बिचौलियों को ही मिलने लगा और पूरी उत्पादन-वितरण प्रक्रिया बिचौलियों के नियंत्रण में सिमटने लगी। बिचौलियों ने राजसत्ता के साथ मिलकर हेराफेरी करना और नये उन्नत उत्पादन के साधनों के ज़रिए सस्ते मूल्य पर उत्पादन करना शुरु कर दिया। फलस्वरूप पारंपरिक उत्पादन के साथ हस्तकारों का प्रतिस्पर्धा में टिके रहना असंभव हो गया। श्रम के औज़ारों के बिक जाने के बाद कामगार के पास अपना जीवन चलाने के लिए अपनी श्रम-शक्ति के अलावा बेचने लायक कुछ भी नहीं बचा था।
अब बाज़ार में एक ओर बिचौलिया था जिसके पास निजी संपत्ति के रूप में उत्पादन के सारे साधन हासिल थे पर उत्पादन करने के लिए आवश्यक श्रम-शक्ति नहीं थी, और दूसरी ओर था श्रमिक जिसके पास श्रम-शक्ति तो थी पर श्रम के साधन नहीं थे जिनके ज़रिए वह उत्पादन कर अपने लिए जीवन के साधन जुटा सकता। और यहीं से शुरुआत होती है श्रम की जगह श्रम-शक्ति की ख़रीद-फ़रोख़्त की और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की। अब कामगार उत्पादक न हो कर स्वयं उत्पाद बन गया। मार्क्स के पहले के सभी अर्थशास्त्री इस प्रक्रिया को पहचानने में नाकाम रहे। ग़ैर-मार्क्सवादी अभी भी नहीं समझ पाते हैं कि श्रमिक को दी जाने वाली मज़दूरी उसकी श्रम-शक्ति की एक निश्चित अवधि की क़ीमत होती है न कि उस अवधि में श्रम-शक्ति द्वारा उत्पाद में अंतरित किये गये श्रम के रूप में पैदा किये गये मूल्य की।
मार्क्सवाद के अनुसार मानव समाज एक जैविक संरचना है, अपने अवयवों से गुणात्मक रूप से भिन्न। एक सामाजिक-आर्थिक संरचना जिसके मानव रूपी अवयव जीवन निर्माण और निरंतरता की जैविक प्रकृति के कारण सामाजिक-आर्थिक क्रिया-कलापों के ज़रिए एक दूसरे जुड़े रहते हैं। यह जुड़ाव मूलत: वैचारिक है और इस कारण यह जैविक संरचना एक वैचारिक चेतना है जिसका अपना भौतिक स्वरूप कोई नहीं है पर भौतिक आधार मानवीय इकाइयाँ हैं जिनके सामूहिक व्यवहार के ज़रिए उसका प्रकटीकरण होता है। समाज की सामूहिक चेतना मानव की व्यक्तिगत चेतना से गुणात्मक रूप से भिन्न है। एक व्यक्ति अलग-अलग समय पर या एक ही समय पर, गुणात्मक रूप से भिन्न दो अलग-अलग सामाजिक चेतनाओं का वाहक हो सकता है। इस कारण आज भी एक ही राज्य की सीमाओं के अंदर तीनों विभिन्न प्रकार की सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं की मौजूदगी देखी जा सकती है। मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम से अनभिज्ञ होने के कारण सभी वामपंथी तथा ग़ैर-मार्क्सवादी समाज की संरचना को सही-सही समझ पाने में असमर्थ हैं। 
 पूँजीवादी समाज एक विशिष्ठ सामाजिक-आर्थिक संरचना (Socio-economic Formation) है, और पूँजीवाद उसकी चेतना है। इस समाज की भौतिक-सामाजिक चेतना (Material-social Consciousness) का भौतिक आधार है संपदा और उत्पादन के साधनों का निजी स्वामित्व में, ग़ैर-कामगारों के हाथों में होना, न केवल स्वामी के जीवनकाल में बल्कि मृत्यु के बाद भी वसीयत के अधिकार के रूप में। और जिसकी वैचारिक-सामाजिक चेतना (Ideological-social Consciousness) का आधार है उत्पादन संबंध, उद्यमी तथा सर्वहारा के बीच संबंध जो इस अवधारणा पर आधारित है कि उत्पादन प्रक्रिया की चालक शक्ति उद्यमी की इच्छा शक्ति है न कि श्रमिक की श्रम-शक्ति, और मज़दूर को दी जाने वाली मजूरी उसके श्रम की क़ीमत है न कि एक निश्चित कार्य-काल के लिए ख़रीदी गयी उसकी श्रम-शक्ति की। और इस कारण मज़दूर के द्वारा उत्पाद में जोड़े गये श्रम अर्थात उस के मूल्य में की गई वृद्धि पर मालिक का पूरा-पूरा हक़ है न कि श्रमिक का। इस कारण श्रमिक को उसकी श्रम-शक्ति का मूल्य चुकाने के बाद बचा हुआ अतिरिक्त मूल्य मुनाफ़े के रूप में पूँजी के लागत मूल्य में जुड़ जाता और संचित मूल्य के रूप में पूँजी के निरंतर इज़ाफ़े का आधार है़। इस सामाजिक-चेतना में निजी स्वामित्व की अवधारणा का मूर्त रूप है पूँजीपति और साधन-रहित श्रम-शक्ति का मूर्त रूप है सर्वहारा। पूँजीवाद की अंतर्वस्तु है पूँजीवादी उत्पादन-संबंध अर्थात उत्पादन प्रक्रिया में पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य के बँटवारे में इच्छा-शक्ति तथा श्रम-शक्ति के बीच संबंध, यानि साधन-संपन्न निजी स्वामित्व की अवधारणा तथा साधन-वंचित श्रम-शक्ति के बीच अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन तथा बँटवारे में उनका अंतर्संबंध, और उसकी अधिरचना है राजसत्ता तथा वे सारे प्रतिष्ठान जो पूँजीवादी समाज को जीवन-शक्ति तथा निरंतरता प्रदान करते हैं। वामपंथियों की सारी नासमझी का कारण है अधिरचना को अंतर्वस्तु समझ लेना। 
वामपंथियों की समझ की एक और बड़ी कमी है, वह है उनकी पूँजी के बारे में समझ। वे न पूँजी और संपत्ति के भेद को समझते हैं और न पूँजी की अंतर्वस्तु और अधिरचना में भेद कर पाते हैं। संपत्ति संचित श्रम की निष्क्रिय अवस्था है जो निष्क्रिय होने के कारण स्वत: वृद्धि में सक्षम नहीं है। पूँजी संचित-श्रम की सक्रिय अवस्था है जिस के अंतर्गत संचित-श्रम या मूल्य, उत्पाद के उत्पादन-उपभोग-चक्र की चालक शक्ति के रूप में, अपनी सक्रिय भूमिका के जरिए श्रम द्वारा पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य को हासिल कर स्वयं की वृद्धि करता है। 
उत्पादन की प्रक्रिया में उत्पाद्य (Object of labour) तथा श्रम-साधन (Means of labour) में पहले से किया जा चुका संचित-श्रम उत्पाद में हस्तांतरित होता है जब कि श्रम-शक्ति द्वारा पैदा किया गया श्रम उत्पाद में अंतरित होता है। हस्तांतरण में लागत के रूप में मूल्य का एक बिंदु से दूसरे बिंदु पर केवल स्थांतरण होता है, नया मूल्य पैदा नहीं होता है। लागत पूँजी श्रम-साधन से उत्पाद्य में हस्तान्तरित होती है, उस के मूल्य में कोई इज़ाफ़ा नहीं होता है। पर श्रम-शक्ति द्वारा पैदा किया गया मूल्य, श्रम-शक्ति ख़रीदने के लिए मजूरी के रूप में श्रमिक को भुगतान किये गये मूल्य से अधिक होता है और यही वह अतिरिक्त मूल्य है जो पूँजी के स्व-विस्तार का आधार है। यही अतिरिक्त मूल्य है जो मुनाफ़े के रूप में उत्पादन-वितरण-उपभोग की प्रक्रिया में लगी पूँजी के विभिन्न रूपों के बीच बँटता है। इसी की बंदरबाँट के लिए विभिन्न पूँजीपति निरंतर संघर्षरत रहते हैं। बड़ा पूँजी समूह अपनी बड़ी ताक़त के आधार पर अतिरिक्त मूल्य का बड़ा हिस्सा हड़प लेता है और इसी प्रक्रिया के ज़रिए पूँजी का विस्तार तथा एकत्रीकरण होता रहता है।
 जैसा ऊपर दर्शाया गया है राजसत्ता के आश्वासन के साथ उत्पादों के मूल्य ने पूरी तरह सामाजिक-वैचारिक चेतना में अवस्थित एक विचार का रूप ले लिया और मुद्रा उस विचार का मूर्त रूप बन गई। पूँजी के एकत्रीकरण के साथ-साथ पूँजी के केंद्र, महाजन तथा बैंक स्वयं इतने शक्तिशाली हो गये कि उनके स्वयं के आश्वासनों ने राजसत्ता के आश्वासनों की भूमिका निभाना शुरु कर दिया। पूंजीवाद के शुरुआती दौर में पूंजी वितरण के क्षेत्र में ही सक्रिय थी इस कारण अतिरिक्त मूल्य पूरी तरह उसके आधिपत्य में नहीं था। पर श्रम-साधनों के विकास और सर्वहारा के प्रसार के साथ पूँजी ने उत्पादन के क्षेत्र पर भी अधिकार करना शुरु कर दिया। अब मूल्य के उत्पादन और वितरण दोनों पर अधिकार होने के साथ ही पूँजी ने समाज की वैचारिक-चेतना को भी अपने प्रभाव में ले लिया। समाज की वैचारिक-चेतना में वर्चस्व हासिल करने के साथ ही पूँजीवाद ने सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं के पारंपरिक उत्पादन आधार तथा संबंधों को ध्वस्त करना शुरू कर दिया। उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ पूंजी के लिए राष्ट्र-राज्य की भौगोलिक सीमायें बेमानी होने लगीं। आर्थिक गतिविधियों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप हासिल कर लेने के बाद राजसत्ता के आश्वासनों का स्थान महाजनों और बैंकों के आश्वासनों ने ले लिया और मूल्य के मूर्त रूप का स्थान महाजनों की हुंडियों और बैंकों की गारंटियों ने। 
औद्योगिक विकास एक साथ अलग-अलग राज्यों में होने के साथ-साथ पूँजी के भी अलग-अलग केंद्र विकसित होने लगते हैं। शुरुआती दौर में पूँजीवाद को अपने विकास और सुरक्षा के लिए राज्य की भौतिक शक्ति की आवश्यकता थी और उसे राज्य की स्वायत्तता के अंतर्गत रहना पड़ता था। पूंजी के अलग-अलग केंद्रों की पहचान अपने-अपने राज्य के भौतिक अस्तित्व से की जाती थी। असमान विकास के कारण पूँजी के अलग-अलग केंद्रों के बीच संघर्ष राज्यों के बीच संघर्ष के रूप में प्रकट होता है। पर अपनी उच्चतम अवस्था में पहुंचने पर पूंजी का चरित्र स्थानीय से हट कर वैश्विक हो जाता है, मूल्य के मानक राज्य के आश्वासन की जगह महाजनों तथा बैंकों के आश्वासन ले लेते हैं। बड़ी पूंजी का छोटी पूँजी के ऊपर प्रभुत्व, अपने भौतिक स्वरूप में बड़े साम्राज्यों के अपने उपनिवेशों के ऊपर वित्तीय तथा आर्थिक आधिपत्य के रूप में नज़र आता है। 
अलग-अलग राज्यों में राजसत्ता समर्थित मुद्रा अभी भी उत्पादन-वितरण का माध्यम थी पर ब्रेटन-वुड्स समझौते के अंतर्गत मूल्य का मानक अमेरिकी डालर स्वीकार कर लिए जाने के बाद पूँजी के लिए अबाध अंतर्राष्ट्रीय गतिविधि का रास्ता भी साफ़ हो गया। अब पूँजी का वैश्विक स्वरूप पूरी तरह वैचारिक-सामाजिक चेतना का हिस्सा हो गया था, उत्पादों के किसी भी भौतिक स्वरूप से पूरी तरह असंबद्ध, राजसत्ताओं द्वारा समर्थित मुद्रा से भी असंबद्ध। उत्पादन-वितरण-उपभोग की प्रक्रिया का क्षेत्र वैश्विक हो जाने के कारण अब उत्पादन-वितरण-उपभोग प्रक्रिया की चालक-शक्ति के रूप में पूँजी का कार्यक्षेत्र पूरी तरह से दो भिन्न स्तरों में बंट गया है। 
किसी भी राज्य की भौगोलिक सीमाओं के अंदर विनिमय मूल्य का मानक मुद्रा ही है, और पूँजी का कार्य है उत्पादन-वितरण-उपभोग की प्रक्रिया के संचालन के लिए उत्पादन के साधन और श्रम-शक्ति जुटाने के लिए आवश्यक संचित श्रम अर्थात मूल्य यानि मुद्रा की व्यवस्था करना।
 उत्पादक-शक्तियों के भौतिक स्वरूप के संचालन के लिए मूल्य के मूर्त रूप मुद्रा के प्रबंधन के कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पूँजी के कार्य का आयाम पूरी तरह वैचारिक-सामाजिक-चेतना के दायरे में सीमित हो गया है, - विभिन्न राज्यों के बीच मूल्य के निर्बाध आवागमन के लिए मुद्रा की व्यवस्था और प्रबंधन करना, भौतिक स्तर पर न हो कर वैचारिक स्तर पर-, और इस प्रक्रिया में मुद्रा स्वयं एक विनिमय उत्पाद बन जाती है। श्रम-शक्ति द्वारा अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन एक राष्ट्र-राज्य की सीमा के अंदर ही किया जाता है पर उसका विनिमय और वितरण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होता है। इस कारण एकीकृत वित्तीय पूँजी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मुद्रा की ख़रीद-फ़रोख़्त के ज़रिए अतिरिक्त-मूल्य को बटोरने लगती है। अब एकीकृत अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी की रुचि केवल मुद्रा के स्वामित्व में रह गई है। उत्पादन के भौतिक साधनों का स्वामित्व व्यापक स्तर पर शेयर तथा स्टॉक के रूप में आम जनता को सौंप कर, अब पूँजी की रुचि रह गई है व्यापक जनता की अवचेतना में निजी स्वामित्व के विचार को सुदृढ़ कर पूँजीवादी वैचारिक-सामाजिक-चेतना का आधार पुख़्ता करना ताकि अतिरिक्त मूल्य का विनियमन तथा पूँजी के साथ विलय सहज सुचारू चलता रहे।
उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ केंद्रीकृत उत्पादन व्यवस्था उस स्तर पर पहुँच चुकी है जहां एक उत्पादन केंद्र लाखों करोड़ों उपभोक्ताओं की मांग की आपूर्ति करता है और इस कारण ज़रूरी है कि वितरण व्यवस्था भी उसी स्तर तक विकसित तथा केंद्रीकृत हो। जहाँ पहले कुछ एक ग्राहकों की रोज़ाना की ज़रूरतों की आपूर्ति छोटी-छोटी दुकानों के ज़रिये पूरी की जाती थी वहीं अब उपभोक्ता चाहता है कि उसकी सभी ज़रूरतों की आपूर्ति एक ही माॅल या स्टोर के ज़रिए हो जाय।। मल्टी ब्रांड का खुदरा वितरण एक बड़े स्टोर या माॅल द्वारा करने पर बिचौलिए तथा उपभोक्ता दोनों के श्रम तथा समय दोनों की बचत होती है इससे वितरण प्रक्रिया में उत्पाद में जुड़ने वाले मूल्य में कटौती होती है। ज़ाहिर है छोटे दुकानदार के ज़रिए उपभोक्ता तक पहुं़चने वाले उत्पाद के मुक़ाबले बड़े स्टोर या माॅल के ज़रिए पहुँचने वाले उत्पाद का मूल्य कम होता है । साथ ही गुणवत्ता की आश्वस्तता के कारण तथा अपने स्वयं के समय तथा श्रम की बचत के कारण ग्राहक अधिक क़ीमत देने के लिए भी तैयार रहता है। उस स्तर की वितरण व्यवस्था की स्थापना, विशाल पूँजी निवेश तथा विकसित वितरण व्यवस्था के विशिष्ट तकनीकी ज्ञान के बिना असंभव है। 
ज़ाहिर है मल्टी ब्रांड के खुदरा व्यापार में बड़े-बड़े माॅल तथा स्टोर की स्थापना विकसित होती भारतीय अर्थव्यवस्था, विशाल बाज़ार तथा उपभोक्ता की आकाँक्षा के पूरी तरह अनुकूल है। पूंजी द्वारा अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय स्तर हासिल कर लेने के बाद इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि खुदरा व्यापार में निवेशित पूँजी का नियंत्रण करने वाला संस्थान देश में स्थित है या देश के बाहर स्थित है। उपभोक्ता तो हर कोई है और उनकी तुलना में छोटे बिचौलियों की संख्या नगण्य है। इस कारण मल्टी ब्रांड के खुदरा व्यापार में बड़े-बड़े माॅल तथा स्टोर की स्थापना का किसी भी रूप में विरोध जन आकांक्षाओं के विरुद्ध होने के कारण असफल होने के लिए अभिशप्त है।
बड़े स्तर की वितरण व्यवस्था के मुकाबले में प्रतिस्पर्धा में टिके रहने के लिए छोटे दुकानदार के लिए जरूरी हो जाता है कि वह अपना जीवन स्तर घटाये और इसके ज़रिए वितरण में लगने वाली अपनी श्रम-शक्ति का तथा अपने श्रम का मूल्य घटाये। वह अपनी निम्न-मध्य वर्गीय मानसिकता के कारण 14 घंटे रोज़ ख़र्च की गई अपनी श्रम-शक्ति तथा माल की ढुलाई में ख़र्च किये गये अपने श्रम के सही मूल्याँकन से अनजान, बड़ी पूंजी की संघठित वितरण व्यवस्था के ख़िलाफ़ प्रतिस्पर्धा में, निरंतर अपने जीवन स्तर को घटा कर ही टिका रह पाता है।
अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी ने छोटे दुकानदार को भी, अपनी निम्न-मध्य-वर्गीय मानसिकता के बावजूद, सर्वहारा के समकक्ष खड़ा कर दिया है। निम्नतम स्तर पर भी अपने संस्थान के निजी स्वामित्व की अवधारणा के कारण छोटा दुकानदार निम्न मध्य-वर्गीय मानसिकता से छुटकारा नहीं पा पाता है और अनजाने ही पूँजीवादी चेतना का वाहक बना रहता है। सर्वहारा वर्ग का दायित्व है कि वह छोटे दुकानदार को समझाये कि उसके अपने हित में है कि वह पूँजीवादी नज़रिये को छोड़ कर सर्वहारा के नजरिये को अपनाये क्योंकि यही मानव समाज के हित में है। और इस रूप में मार्क्सवादियों को मल्टी-ब्रांड उत्पाद के खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का समर्थन करना चाहिये ताकि भौतिक परिस्थितियाँ पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोधों को बेनक़ाब कर सर्वहारा वर्ग की एकजुटता को मज़बूत कर सकें।

सुरेश श्रीवास्तव
जनवरी, 2013

Thursday, 23 May 2013

अनमोल बेटियाँ



अनमोल बेटियाँ
बुंदेलखंड विकास परिषद झांसी की रानी के बलिदान दिवस के अवसर पर एक समारोह करने जा रही है। थीम है 'अनमोल बेटियां'। बड़ा अटपटा लगा मुझे थीम का शीर्षक। बेटियाँ तो सभी के लिए अनमोल होती हैं तो  फिर 'अनमोल बेटियाँ' कौन सी होंगीं। बेटी पैदा होती है तो लक्ष्मी घर में आती है और विदा हो कर ससुराल में भी लक्ष्मी के रूप में ही क़दम रखती है। स्वर्ग भी वहीं होता है जहाँ स्त्री की पूजा होती है। तो फिर 'सस्ती बेटियां' कहाँ होंगी जिनकी तुलना में कुछ 'अनमोल बेटियाँ' हों।
लगा जैसे गाल पर किसी ने झन्नाटेदार थप्पड़ मारा हो। निर्भया, जेसिका, गीतिका, रुचिका क्या बेटियाँ नहीं थीं? क्या वे अनमोल नहीं थीं? तो फिर उनकी जान इतनी सस्ती क्यों? अपनी बेटी अनमोल लगती है तो दूसरे की बेटी सस्ती क्यो़ं? किसी भी बेटी से पूछो कि भीड़-भाड़ वाली जगह में कैसा महसूस करती है? उसे हर तरफ़ पुरुषों की भीड़ नज़र आती है जो उसे एक मादा के रूप में देखते हैं, उसके अंदर एक 'अनमोल बेटी' किसी को नज़र नहीं आती है। और बाहर ही क्यों? घर में भी तो बेटी अनमोल तभी तक है जब तक अपनी इच्छाओं को दफ़्न करके रखे और परिवार की हिदायतों को अपनी इच्छा मानती रहे। जिस क्षण अपनी मर्ज़ी से पढ़ना-लिखना चाहे, दोस्त या जीवन साथी चुनना चाहे उसी क्षण अनमोल का दर्जा खो बैठेगी। ऐसा क्यों है? क्या समाज पुरुष प्रधान है इसलिए? क्या पुरुष इसके लिए दोषी है? नहीं, प्रकृति ने तो पुरुष को बनाया ही है बेटी को जन्म देने के लिए।
पर समाज प्रकृति ने नहीं, स्त्री और पुरुष ने मिलकर बनाया है और व्यवस्थायें भी हमीं ने बनाई हैं। हम जिस पूँजीवादी व्यवस्था में रह रहे हैं उसमें जीवन जीने का एकमात्र साधन है पैसा, और मानव का शरीर तथा भावनायें सभी कुछ उत्पाद हैं जिनके विनिमय के लिए बाज़ार चारों ओर मौजूद है। सिनेमा हो, आईपीएल की चीयर लीडर हों या साबुन के विज्ञापन हों सभी में स्त्री के शरीर का प्रयोग यौन भावनाओं को उत्तेजित करने के लिये ही किया जाता है और उसे जायज़ ठहराने के लिए दलीलें अनेकों हैं। और भावनाएँ। स्त्री विमर्ष के नाम पर जो साहित्य और आत्मकथाएं लिखी जाती हैं उनमें भी स्त्री के शरीर और स्त्री पुरुष के अंतरंग संबंधों के विस्तृत वर्णन का मक़सद भी तो पाठकों की यौन भावनाओं को उत्तेजित करना ही है। जितनी ज़्यादा उत्तेजित करने वाली सामग्री होगी उतनी ही अधिक बिक्री होगी।
पूँजीवादी व्यवस्था तो बेटियों का मोल ही लगा सकती है। अनमोल बेटियाँ तो इस व्यवस्था के ख़त्म होने पर ही दिखेंगीं।
सुरेश श्रीवास्तव