Saturday, 27 June 2015

रिक्शा बनाम भूमंडलीकरण

रिक्शा बनाम भूमंडलीकरण

               जनसत्ता, 23 जून 2015 में राजेंद्र रवि की अखिल भारतीय छात्रसंघ में शामिल होने से लेकर 'रिक्शे के साथखड़े होने तक की विचार यात्रा पढ़ कर कोई अचरज नहीं हुआ। एकाध अपवाद को छोड़ कर हर निम्नमध्यवर्गीय युवावस्था से प्रौढ़ावस्था तक इसी रास्ते से गुज़रता हैसारे समाज के लिए कुछ कर गुज़रने के क्रांतिकारी जोश से शुरू करहर क़दम पर अपनी सुख-सुविधा के अनुकूलअपनी सहूलियत के हिसाब से समझौते करते हुए और व्यक्तिवादी सोच के साथ अपने हर क़दम को उचित ठहराते हुएआत्मतुष्टअवसानकाल में दुविधाग्रस्त। निम्नमध्यवर्गीय की व्याख्या करते हुए मार्क्स ने लिखा था, “एक विकसित समाज में और अपनी परिस्थिति के कारणनिम्न मध्यवर्गीय एक ओर तो समाजवादी बन जाता है और दूसरी ओर एक अर्थवादीअर्थात वह उच्च मध्यवर्ग के ऐश्वर्य से चुंधियाया होता है और विपन्नों की विपन्नता से द्रवित भी। वह एक ही समय पर पूंजीपति भी है और जनता का आदमी भी।”, पर साथ ही यह भी रेखांकित किया था कि, निम्न पूंजीपति आने वाली सभी सामाजिक क्रांतियों का अभिन्न अंग होगा।
               बोल्शेविक पार्टी का गठन करने के दौर में संशोधनवाद के ख़िलाफ़ आगाह करते हुए लेनिन ने लिखा था, "जो हमारे आंदोलन की वास्तविक परिस्थिति से थोड़े भी परिचित हैंमार्क्सवाद के व्यापक विस्तार के साथ सैद्धांतिक स्तर में गिरावट उनकी नजरों में आये बिना नहीं रह सकती है। काफी तादाद में लोगसतही या पूरी तरह नदारद सैद्धांतिक प्रशिक्षण के साथआंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा सफलता के कारणउसमें शामिल हो गये हैं। "1917 में रूस में बोल्शेविक कम्युनिस्टों के नेतृत्व में हुई क्रांति के बादकम्युनिस्ट शब्द सारे विश्व में शोषण के विरुद्ध लड़ाई का पर्याय बन चुका था। विडम्बना यह है कि 1920 में ताशकंद में चंद मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों ने मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम की समझ के बिना भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन कर लिया था और तब से भारत में वामपंथी आंदोलन संशोधनवाद के जिस दलदल में फंसा है उससे आज तक नहीं निकल पाया है। 1960-70 के दशक के अनेकों कट्टर नक्सलवादी साथियों को, शोषण से आजादी के लिए राजनैतिक क्रांति की जगह आज, व्यक्तिगत आजादी के लिए सामाजिक क्रांति की पैरोकारी करते देख कर मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता है। जिन्हें मार्क्सवाद की सही समझ नहीं है उनके लिए यह समझ पाना मुमकिन नहीं है कि मानव समाज, व्यक्तियों का केवल एक झुंड नहीं है, बल्कि अपने आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए, मानवों की वैचारिक रूप से संगठित एक जैविक संरचना है। उत्पादन-वितरण सहित सभी राजनैतिक तथा सामाजिक कार्य कलाप, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आर्थिक हितों की पूर्ति से ही प्रेरित होते हैं।          
               मार्क्सवाद एक चिंतन पद्धति है जो संपूर्ण प्रकृति को समझने के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रदान करता है। मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम को समझे बिना न तोमूल्यमुद्रापूँजीअतिरिक्त मूल्य जैसी वैचारिक कोटियों को समझा जा सकता हैऔर न ही शोषण और उसके खात्मे की प्रक्रिया को समझा जा सकता है। अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन करना और उसके जरिए जीवन को सुगम बनाना मानव प्रजाति का प्राकृतिक गुण है और उत्पादक शक्तियों के विकास के जरिए उत्पादकता बढ़ाना इसी का एक आयाम है। जहां अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन केवल मानव श्रम द्वारा वस्तुओं को उपभोग के लिए रूपांतरित करने के दौरान ही किया जा सकता है वहीं, अतिरिक्त मूल्य का हस्तांतरण उत्पादन-उपभोग का चक्र पूरा होने के बाद ही संभव है।
               मार्क्स ने रेखांकित किया था कि औद्योगिक क्रांति के बाद उत्पादन-वितरण का स्वरूप वैश्विक हो गया है जिसने दुनिया के मजदूरों को एक कर दिया है, पूंजी को अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय स्तर प्रदान कर मुद्रा को उत्पाद में बदल दिया है, पूंजीवाद अपनी उच्चतम औपनिवेशिक अवस्था में पहुंच चुका है, और मुक्त व्यापार का समर्थन एक अग्रगामी कदम है जो शोषणमुक्त मानव-समाज के लिए आधार प्रदान करेगा। मार्क्स के इसी सैद्धांतिक विश्लेषण का अनुकरण कर लेनिन यह दर्शा पाये थे कि अविकसित पूंजीवादी व्यवस्था में भी मजदूर वर्ग संसदीय जनवाद की बागडोर अपने हाथ में ले सकता है। और इसी समझ के आधार पर माओ ने नये जनवाद की अवधारणा विकसित की जिसका अनुकरण कर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी चीन के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथ में रखने में सफल हुई। इसके विपरीत भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अपनी गैर मार्क्सवादी समझ के कारण न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाने में असफल रही, बल्कि आज नब्बे साल बाद भी भारतीय राजनीति में दोयम दर्जे की भूमिका के लिए भी मोहताज है।  
               अपनी विचारधारा की विकास यात्रा के अंतिम पड़ाव में राजेंद्र जी रिक्शे के साथ खड़े हो गये हैं, बिना यह समझे कि व्यक्तिगत श्रम द्वारा रिक्शा चलाने वाला, पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया में लगे सर्वहारा की तुलना में कहीं अधिक भीषण शोषण का दंश झेलने के लिए अभिशप्त है। 
    
सुरेश श्रीवास्तव 
नोएडा
27 जून, 2015

Monday, 22 June 2015

भागो की मौत का जिम्मेदार कौन?

भागो की मौत का जिम्मेदार कौन?
जनसत्ता, 17 जून 2015 में, 'हक़ के लिए' आलेख में भागो के ज़रिए निवेदिता ने रेखांकित किया है कि भागो जैसी हज़ारों दलित  महिलाएँ लोगों के हक़ के लिए लड़ते हुए जान दे देती हैं पर दलित महिला होने के नाते उनकी मौत ख़बर नहीं बनती है। वे भूल जाती हैं कि दूसरों के हक की लड़ाई लड़ने वाले/वालियां अपने आप को खाँचों में नहीं बाँटते/बाँटती हैं, जिनकी रुचि केवल ख़बरों में होती है, वे ही लड़ाकुओं को स्त्री या पुरुष, दलित या सवर्ण, अगड़ा या पिछड़ा, हिंदीभाषी या अहिन्दीभाषी, हिंदू या मुसलमान जैसे खाँचों में बाँट कर, वंचितों की हक़ की लड़ाई के लिए आवश्यक एकजुटता को कमज़ोर करते हैं। और अगर कुछएक, चाहे वह भगत सिंह हो या निर्भया हो, का बलिदान ख़बर बन भी जाता है तो भी वह उद्देश्य, जिसके लिए बलिदान दिया गया, क्या कहीं भी पूरा होता नजर आता है। इतिहास कहता है कि इसका उत्तर तो 'नहीं' के अलावा कुछ और नहीं हो सकता है। नब्बे साल पहले के भगतसिंह हों या आज के दौर के नक्सलवादी या माओवादी हों, उन बेशक़ीमती जवानियों की असफल शहादत और असमय मौत का ज़िम्मेदार कौन है? क्या राजसत्ता के कारकुन जल्लाद या सिपाही, या सामंतों की रनबीर सेना के हथियारबंद दस्ते? या फिर अस्तित्व के लिए संघर्षरत शोषित वर्ग के स्वघोषित पैरोकार बुद्धिजीवी, जो शोषितों को शोषकों विरुद्ध उकसाने का काम बख़ूबी अंजाम देते हैं, पर जो स्वयं न तो शोषण की क्लिष्ट प्रक्रिया को समझते हैं और न ही उसमें सार्थक हस्तक्षेप कर सकने की क्षमता विकसित कर सकने का रास्ता जानते हैं।
बुद्धिजीवियों का एक वर्ग है जो समाजवाद की दुहाई तो देता है पर मार्क्सवाद को सिद्धांत के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। यह वर्ग अभिव्यक्ति की व्यक्तिगत आज़ादी को अनुल्लंघनीय नियम के रूप में स्वीकार करता है और अस्मिता की राजनीति को क्रांतिकारी संघर्ष मानता है, इसलिए उसके पास न कोई सिद्धांत हो सकता है और न ही वह संगठित संघर्ष के महत्व को समझ सकता है। पर जो मार्क्सवादी होने का दम भरते हैं और कम्युनिस्ट पार्टी के नाम पर एकजुटता का दावा करते हैं, वे भी मार्क्सवाद को एक सिद्धांत के रूप में न देखकर एक विचारधारा के रूप में देखते हैं जिसको निरंतर विकसित किये जाने की आवश्यकता है, और विचारधारा को विकसित करने के नाम पर, वैज्ञानिक समाजवाद को नकार कर, काल्पनिक समाजवाद को अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार परिभाषित कर, फ़िलवक्त के लिए प्रासंगिक विकसित समाजवाद के रूप में पेश करते रहते हैं।
इस प्रचलित धारणा, कि कम्युनिस्ट पार्टी ग़रीबों की पार्टी होती है, का अनुकरण कर भागो भी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गयी, बिना यह जाने-समझे कि बिना क्रांतिकारी सिद्धांत के कोई भी क्रांतिकारी पार्टी नहीं हो सकती है। लेनिन ने आगाह किया था कि ' जो कोई भी संसदवाद तथा बुर्जुआ प्रजातंत्र के अनिवार्य आंतरिक अंतर्विरोधों, जिनके चलते मतभेदों के समाधान पहले के मुक़ाबले कहीं अधिक व्यापक हिंसा के कारण और अधिक उग्र होते हैं, को नहीं समझता है, वह व्यापक मजदूरवर्ग को ऐसे फ़ैसलों में विजयी अभियान के लिए तैयार करने के मक़सद से संसदवाद के आधार पर कभी भी उसूल सम्मत प्रचार तथा आंदोलन नहीं चला सकता है।' और पिछले नब्बे साल के इतिहास में हर निर्णायक अवसर पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा लिए गये ग़लत फ़ैसले और व्यापक मजदूरवर्ग को विजयी अभियान के लिए तैयार करने में उनकी असफलता, इस बात की तसदीक़ करते हैं कि भारतीय कम्युनिस्टों के बीच उस सिद्धांत की समझ नदारद है, जिस सिद्धांत के बारे में मार्क्स ने कहा था कि 'सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने पर भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है और जनता के मन में घर वह तब करता है जब वह पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब करता है।'
मौजूदा विखंडित कम्युनिस्ट पार्टियों के रूप में संशोधनवाद अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है और उनके अवसान में निहित है भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का प्रस्थान बिंदु।

सुरेश श्रीवास्तव
9810128813
suresh_stva@hotmail.com
22 जून 2015